आदिवासी हो समाज का दर्शन

ईषा से हजारों वर्ष पूर्व पत्थर युग में ही आदिवासी समाज ने खेती के जमीन में प्रवेश किया। यहीं से म: नम, लु: नम वोंगा बुरु (देवी देवताओं) को खुश करने के वास्ते बलि देकर पूजा पाट किया गया, जिसमे आदिवासिओं या उस समय के आनार्यों ने आदि संस्कृति एवं अध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सामाजिक रीती रिवाज के दैविक सिद्दाँत को अपनाया। यह पूर्णत: प्राकृतिक अनुष्ठान था। भारतीय संविधान में यही आदिवासी नुसुचित जनजाति में दर्ज होकर हैं। हम जानते हैं की मनुष्य का जीवन ईश्वरीय देन है और सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य प्राकृतिक आवस्था में रहता था। इस जीवन को पार करने में एक पुरूष लुकु हड़म और एक स्त्री लुकुमी बुड़ी ने अपनी सुरक्षा के लिए आदि संस्कृति एवं आध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सिद्धांत को अपनाया और इस सिद्दांत के अनुसार वोंगा बुरु, सेवाषड़ा, देषाउली, जयरा ,हातु गैन्शिरी , मंग्बुरु , गोवां वोंगा, बुरु वोंगा, गुरु वोंगा, नागे एरा-बिंदी एरा, हर वोंगा को मनाने के बाद सुरक्षित रहने लगे और एक निश्चित उद्देश्य से मिलन हुए थे जिसे दाम्पत्य जीवन कहते हैं। इस दाम्पत्य जीवन की परिधि में संतान की उत्पति हुई। इस तरह एक पुरूष, स्त्री और संतान के मिलने से एक परिवार का निर्माण हुआ और धीरे धीरे परिवार की संख्या बढ़ने लगी। एक परिवार कई परिवारों में बंट गए और कई परिवारों ने मिलकर एक समाज का गठन किया। हो समाज ने साथ और अधीन रहने के लिए 32 पाटों (समुदाय) के और भी परिवार के लोग स्वीकार किए जैसे - महाली , कमर, गौ, पेंयाये , कुंकल, डोम, गांसी , मोची , सकरा , पटीकर आदि, सभी ने समाज का गठन किया और सुरक्षित रहने लगे।
आदिवासी हो समाज के दर्शन के अनुसार (कोवा ओंडो कुई)नर और नारी ही पूजा उपासना के केन्द्र विन्दु हैं। नर धनात्मक शक्ति का द्योतक है और नारी ऋणात्मक का। इन दोनों का साथ होना ही ईश्वर की परिकल्पना को दर्शाता है। जिसे हो समाज सिंग्वोंगा के रूप में मानता है, उपासना करता है। भविष्य को अच्छा बनाने, भलाई का काम एवं अन्दर के डर को दूर करने के लिए आदिवासी समुदाय ने अपने जो कर्तव्य निर्धारित किए हैं वही हमारा सांस्कृतिक विधि विधान हैं। और यह पद्दती पूर्णत: प्रकृति पर आश्रित है। हो’/मुंडा समाज की धारणाओं के अनुसार ईश्वर (सिंग्वोंगा) को साक्षी मान कर अपने धनुष से तीर (सर) को आसमान की ओर करके मंत्रोचार के साथ छोड़ा गया तो वापस पृथ्वी पर साल के वृक्ष में धंस गया, जिसे हमारी भाषा में सर + जोम केडा (तीर निगल गया) कहा गया। इस वृक्ष को सर्जोम कहा गया। फ़िर इसी वृक्ष के सानिध्य में भगवान (सिंग्वोंगा) की पूजा उपासना की जाने लगी। साल वृक्ष के सभी अंग पत्ते, फूल, रस, एवं जड़ सभी आदिवासी समुदाय में उपयोगी एवं औषधीय गुण से परिपूर्ण माने जाते हैं। जिसे हो भाषा में षाहाराना यानि सर्वगुण संपन कहा गया और इसी कारण सरना शब्द की उत्पति भी मानी गई। जो आज कल बोल चाल में सरना धर्म कहा जा रहा है। सरना’ अपने विशेष यन्त्र यानि पूजा उपासना के साजो सामान, मंत्र यानि मंत्रोचार एवं तंत्र यानि पूजा उपासना की प्राकृतिक पद्दती के कारण पूर्णतया प्राकृतिक सांस्कृति है।
आदिवासी हो समाज धार्मिक नहीं वरण सामाजिक और सांस्कृतिक पद्दतियों का अनुसरण करने के कारण इसके दर्शन को आदि संस्कृति एवं अध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सामाजिक रीती रिवाज का दैविक सिद्दाँत माना एवं समझा जाता है। पुरुष एवं स्त्री (कोवा ओंडो कुई पे:ए) के आध्यात्मिक शक्ति का केन्द्र विन्दु सिंग्वोंगा है। यह शक्ति पोजेटिव और नेगेटिव के समिश्रण के रूप में सबसे शक्तिशाली केन्द्र है। जिसकी उपासना से सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय अपने कर्मों को इस दुनिया में संपन्न कर पा रहा है। इसकी आसीम शक्ति को प्रत्येक ग्राम स्तर पर देषाउली-जयरा के रूप में पूजा उपासना किया जाता है। यहाँ देषाउली धनात्मक शक्ति का द्योतक है, तो जयरा ऋणात्मक शक्ति का। प्रत्येक गाँव में इसके आलावे हातु  गाईंशिरी, मंग्बुरु, गोवाँ वोंगा, बुरु वोंगा, गुरु वोंगा, नागे एरा बिंदी एरा की भी पूजा उपासना की जाती है। इसके आलावे हर-बोंगा को गाँव से बाहर खदेड़ कर गाँव सीमा से बाहर भगा दिया जाता है।
आदिवासी संस्कृति में वर्ष में चार ऋतुओं की व्याख्या मिलती है। और इन्हीं चार ऋतुओं पर आदिवासी हो समाज के पर्व त्यौहार मनाए जाते है। उपरोक्त विभिन् तरह की शक्ति केन्द्र प्रकृति के ही अंग हैं और अलग अलग देवी देवता (म: नम चलु: नम वोंगा बुरु) के रूप में माने जाते हैं। जिनका कोई स्वरुप नहीं होता वे प्रकृति के अंग मात्र होते है।
        आदिवासी हो समाज की संस्कृति, जन्म संस्कार, विवाह संस्कार, मृत्यु संस्कार, एवं विभिन्न पर्व त्योहारों में प्राकृतिक संस्कार से तय एवं निर्दिष्ट होते हैं, जिसका प्रतिबिम्ब(reflection) स्त्री शरीर के विभिन्न बदलाओं में आध्यात्मिक रूप से परिलक्षित होता है, ऐसा माना जाता है।

Comments

Anonymous said…
सुन्दर आलेख। आदिवासी समाज के दर्शन, परम्पराओ और आस्थाओ को धर्मानंतरण से बचाना आवश्यक है। यह सब विश्व धरोहर हैं।