हो समाज और सिञवोन्गा

हो समाज भगवान को सिञवोन्गा के रूप में मानता है। और यह सिञवोन्गा प्रकृति की असीम शक्ति को दर्शाता है। सिञवोन्गा 'हो' भाषा के तीन शब्दों के मिलन का एक नाम है सिञ + बू + ओंगाह। सिञ ऋणात्मक शक्ति है, ओंगाह धनात्मक शक्ति है और बू इन दोनों शक्तियों का कर्म स्थल है। इस तरह नर और नारी के मिलन के रूप में सिञवोन्गा 'हो' समाज में असीम शक्ति के रूप में पूज्यमान है। आदिवासी 'हो' समाज के दर्शन के अनुसार नर और नारी ही पूजा उपासना के केन्द्र विन्दु है। नर धनात्मक पक्ष का द्योतक है और नारी ऋणात्मक पक्ष का। इन दोनों का मिलन ही सिञवोन्गा की परिकल्पना को दर्शाता है। जिसे 'हो' समाज या समुदाय सिञवोन्गा के रूप में मानता है, उपासना करता है। इसके आलावे सिंगिवोंगा सूर्यदेवता के लिए इस्तेमाल होता है। तो सिम्वोंगा में मुर्गा की बलि को दर्शाता है। 'हो' समुदाय का असीम शक्ति केन्द्र सिञवोन्गा पुरे प्रकृति में नर (धनात्मक) और नारी (ऋणात्मक) के मिलन स्थल के विभिन् स्वरूपों में विद्यमान है, जिसे देसौली, जयेरा, ग्राम गैशिरी, मंग्बुरु, गोवान्वोंगा, बुरुवोंगा, नागे एरा - विंदी एरा इत्यादि के रूप में पूजा अर्चना किया जाता है। हम देसौली ही कहते हैं पर इस शब्द में देसौली और जयेरा दोनों मिल कर ही असीम शक्ति को दर्शाते हैं। यंहा भी देसौली धनात्मक शक्ति है यानि नर है तो जयेरा ऋणात्मक शक्ति है यानि नारी है। जीवन के विभिन् उम्र के हिसाब से हमारे देवी - देवता अलग - अलग स्वरूपों में बोले एवं आराधना किए जाते हैं। देसौली इस असीम शक्ति का युवा भाग है। 'हो' समुदाय जिस भी पवित्र चीजों में पूजा अर्चना करता है उसमें नर और नारी का स्वरुप अवश्य विद्यमान होता है। जैसे साल का वृक्ष को यदि देखा जाय तो इसके फलों पर यदि हम जाते हैं तो पाएंगे की उसमें भी नर और नारी स्वरुप एक जगह पर विद्यामन है। और इसमें भी प्रकृति की असीम शक्ति विद्यमान है। और इसलिए हमारे देवी (रिनात्मक) देवता (धनात्मक) नर और नारी के मिलन के रूप में ही इस पृथ्वी में सृजन करते हैं हमें शक्ति देते हैं। इस पूरे पृथ्वी में प्रत्येक जीवों में इसी रूप में सिञवोन्गा विद्यमान होते हैं और जीवन को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। जिनकी कृपा से यह दुनिया चल रही है और जिस दिन यह कृपा ख़त्म हो जायेगी प्रकृति में पेड़ पौधे ख़त्म हो जायेंगे यानि नर और नारी के स्वरुप ख़त्म हो जायेंगे पृथ्वी समाप्त भी हो सकती है। 'हो' समाज के दर्शन यही कहते हैं। समय रहते प्रकृति के इस धर्म दर्शन को यदि नही समझा गया तो सब कुछ ख़त्म हो जाएगा और मानव के पास पछताने के सिवा कुछ नही बचेगा। श्रृष्टि के नियम आदिवासी धर्म दर्शन में ही निहित हैं। आज इसे बचाने के लिए इसे प्राकृतिक धर्म के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है। प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता है। यह महज एक धर्म दर्शन की बात नही है बल्कि इस धरती को रहने लायक बनाने की एक प्राकृतिक सोच एवं पद्धति है। और आदिवासिओं के रहन सहन को महज रुढिवादी कह देने से इनके परम्पराओं के पीछे के विज्ञानं को नजर अंदाज करने का एक अवैज्ञानिक सोच ने पृथ्वी को विषैला बना दिया है। समय आ गया है फ़िर से आदिवासी धर्म दस्तूरों को अपनाने की , इसके विज्ञानं को सर्ब्मान्य बनाने की और यही इस दुनिया के दर्द एवं विष को समाप्त कर सकता है दूसरा कोई तरीका आज दुनिया के पास नही बचा है जिस पर विश्वास किया जाय और प्रकृति को, जीवन को बचाया जा सके।

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