फूटबाल, हंडिया एवं हो' समाज

हंडिया के बाजारीकरण को लेकर सभी तरह के सामाजिक एवं राजनितिक संगठन अकसर पेशोपेश में रहे हैं। अपनी सामाजिक जिम्मेदारी की भूल भुलैया इसका मूळ कारण है। अपने नियमावली के अधीन सामाजिक कामों की वकालत हमेशा रही है, परन्तु सामाजिक जिम्मेदारी की नि:स्वर्तता कभी नही देखी गई। हंडिया पीने में आदिवासी समाज ने कभी चिंतन नही किया। इसके पीछे इसे बनाने का सुलभ तरीका एवं सस्ता उपाय है। आदिवासी समुदाय के स्वाभाव को परखने वाले जनप्रतिनिधियों ने भी कोई कसर अपनी ओर से नही छोड़ी और आज चुनाओं के पूर्व गाँव-गाँव में हंडिया के लिए चावल वितरित किया जाता है। उनके नजरों में भी यही सच्चाई रही है की आदिवासी हंडिया के बहकावे में आसानी से आ जायेंगे और हमें वोट देंगे। आज यदि विश्लेषण किया जाय तो हंडिया को घर आँगन से निकाल कर हाट बाजारों में स्थान देने का यह मूळ कारण रहा है। पूरा समाज मौन स्वीकृति देते हुए इसे अपनी सभ्यता और संस्कृति का छोला पहनाकर उपभोग करता रहा। सामाजिक बुदिजिवी एवं पढ़े लिखे लोगों ने इसे अपने सामाजिक काम का हिस्सा नही माना, नतीजा हंडिया के बाजारीकरण के फलस्वरूप समाज का विकृत रूप आज हमारे सामने है। रही सही कसर आज महुआ और देसी विदेशी शराबों ने पूरी की। इनके नशे में मदमस्त आदमी मौज के बहाने हंडिया के गोदामों में बालिग - नाबालिग़ बालिकाओं के हाथों हंडिया रूपी शराब के सेवन में पदारते रहे हैं, और नशे की अत्यधिक मात्रा में अपने क़दमों तले जमीन को खिसकते महसूस करते रहे हैं। फिर भी समाज मौन है। बात साफ है, समाज के सभी ठेकेदार हंडिया के मामले में अपने नफा नुकसान को आंकने में लग जाते हैं। विश्लेषण होता हैं और चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ ली जाती है। हंडिया को प्रोत्साहित करने वाले कारकों में आज मुर्गापाड़ा और फूटबाल प्रतियोगिताएं दैत्य के रूप में खड़े हैं। ये वही जगह हैं, जहाँ काम कर सकने वाले व्यक्ति ६० प्रतिशत युवा तथा अन्य खुशी खुशी अपने घर आँगन के काम को छोड़कर १०० रुपये तक पोक्केट में लेकर आते हैं। दो तीन दिन का आयोजन फूटबाल ने नाम पर होता है। यानि उतने दिनों तक उस इलाके में घर के काम काज के लिए आदमी नही मिलेंगे। साथ ही कॉलेज एवं स्कूलों के पंजीयन रजिस्टर का आंकलन करने पर ३० प्रतिशत की उपस्तिथि ही दर्ज हो पाती है। यही आदमी यदि गाँव में काम करता तो सरकारी रेट से १०० रुपैये तो कमा सकता था। फुटबॉल खेल के बहाने सभी कुछ मुर्गापाड़ा, तास, हब्बा-डब्बा, महुआ शराब, देसी विदेशी शराब, चलता है। कोल्हान के १६०० गावों में से ८०० गावों में यह खेल अपना पैर फैला चुका है। बच्चों का बौद्दिक विकास की वकालत पर यह खेल राजनीतिज्ञों का यह चारागाह बन गया है। विकाश के प्रशनों से दूर रहने के लिए राजनीतिज्ञों का एक घिनोना खेल जो बच्चों के भविष्य एवं समाज के नैतिक पतन के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। आज कल यह खेल राजनीती करने वालों के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाली भीड़ जुगाड़ करनेवाला माध्यम बन गया है। आन्खाड़े जो हैरान कर सकते हैं :- १- २००० व्यक्ति ३ दिन यानि ६००० व्यक्ति, प्रतिदिन इन्हे सरकारी कामों में लगने से ९० रुपये मिल सकते थे, अत: ५४०००० रुपये का नुकसान हो रहा है। इस तरह पूरे कोल्हान में ४३२०००००० रुपये यानि ४३ करोड़ का नुकसान। २- इसी तरह हब्बा-डब्बा में २०००० रुपये प्रति हब्बा-डब्बा खेल होता है, और पूरे कोल्हान का हिसाब होता है तक़रीबन ४८ करोड़ रुपये। ३- मुर्गापाड़ा - एक मुर्गा के पीछे १००० रुपये तक का जुवा खेला जाता है, और पूरे कोल्हान में १२ करोड़ हो जाता है। ४- महुआ का शराब प्रतिदिन १००० लीटर विकता है और पूरे कोल्हान में ५ करोड़ का। ५- तास के पत्ते पर सट्टा पूरे कोल्हान में ७६ लाख का हो रहा है। ६- विदेशी शराबें इन आयोजनों के दौरान २.५ करोड़ के विक जाते हैं। ७- और अंत में हंडिया इन आयोजनों में ३.५ करोड़ का विक जाता है। इस तरह समाज को कुल मिलाकर१.२५ अरब का सीधे तौर पर नुकसान हो रहा है। वही व्यक्ति यदि घर में रहता तो सरकारी कामों की जानकारी हो सकती थी, काम नही मिलने पर सरकारी पदाधिकारियों पर दबाव की रणनीति बन सकती थी। राजनीतिज्ञों की चारागाह फुटबॉल प्रतियोगिताएं मौज मस्ती के साथ-साथ विकास के मुद्दों से अलग बच्चों के बौद्दिक विकास का छोला पहने समाज को दिग्भ्रमित करने का आखाडा हो गया है। आसामायिक काल के गाल में समाज को सामूहिक नरसंहार के रास्ते पर भटका दिया जा रहा है, और यह काम राजनितिक प्रतिनिधियों द्वारा राजनितिक हितों को साधने के लिए किया जा रहा है। समाज के सभी सेवक अपने-अपने निहित स्वार्थ के कारण उपभोग में लगे हैं और मौन हैं। क्या इन सामाजिक बुराइयों के लिए कोई सामाजिक पहल की संभावना है ??

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