आदिवासी हो' समाज व्यक्तियों और परिवारों का ऐसा समूह है, जो आपसी व्योहारों और भाईचारे के संबंधों पर आधारित है। इस खास व्यवस्था में भौतिक वस्तुएं, नैतिक मूल्य, मान्यता, मानदंड, विश्वास, आस्था, धर्म, भाषा और रूदीवादी प्रथा आदि है। हो' समाज प्राचीनतम मुंडा जाति की एक शाखा है, जो झारखण्ड के कोल्हान, सराइकेला खरसाँवा, पूर्वी सिंघ्भुम, उड़ीसा राज्य के मयूरभंज, क्योंझर जिला तथा प०बंगाल के पहाड़ी इलाकों में सैकड़ों वर्ष पहले से बसी हुई है. आदिवासी हो लोगों के लिए लिखा गया इतिहास जहाँ संदिग्ध, विवादग्रस्त, पूर्वाग्रह, और द्वेष से दूषित है, वहीँ समाज की सांस्कृतिक परम्पराएँ और औधारनाएं काल पटल पर ऐसे दस्तावेज हैं, जो अनश्वर और शाश्वत हैं। मृत्यु के बाद अपने पूर्वजों का वास तथा पोता पोतियों को दादा दादियों के नाम पर रखना महज एक संयोग नही है वरन अपने पारंपरिक एवं पारस्परिक रिश्तों को भविष्य में संजोये रखने की एक ऐसी व्यवस्था है, जिसकी तुलना में लिखित इतिहास फीका साबित होता है। इस प्रकार हमारा सामाजिक इतिहास हमारी सांस्कृतिक धरोहरों में सुरक्षित रहते आया है, और रहेगा यदि हम स्वयें इसे मिटानेपर न तुले हों। हो' समाज विभिन्न छोटे मोटे लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पहलुओं से बनी है जिसकी एक पहलु के कमजोर पड़ने पर अन्य सांस्कृतिक पहलुओं पर असर पड़ना निश्चित हो जाता है, जिसके परिनामश्वरूप सम्पूर्ण सामाजिक संरचना को खतरा उत्पन्न हो जाता है। हमारे समाज की मौलिक आवश्यकताएं जैसे भोजन, भूमि, कपड़ा और आवास है। इन्ही मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित होने की प्रेरणा हमें मिलती है। आदिकाल में हमारी आवश्यकताएं सिर्फ भोजन और सुरक्षा तक सिमित थी, और हम उन सीमित आवश्यकताओं की पूरा करने के लिए अपने ही समाज में एक-दूसरे के पारस्परिक सहयोग पर निर्भर करते थे। लेकिन जब से हमारा वास्ता बाहरी समाजों के साथ पड़ा है, तब से हमारे सामाजित अस्तित्व को अनेक तरह की चुनौतियों और हस्तक्षेपों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण आज हम आर्थिक रूप से विपन्न हुए और सांस्कृतिक रूप से भी हमारा शोषण हुआ। हमारी संस्कृति सिर्फ हमारे लोक गीतों, नृत्यों, और लोक कलाओं तक ही सीमित नही है, क्योंकि संस्कृति की समाजशास्त्रीय परिभाषा के अर्न्तगत जन्म, विवाह एवं अन्तिम संस्कार तक के समस्त अनुष्ठान, हमारी भाषा, रहन-सहन के तौर-तरीके, भोजन की आदतें, सामाजिक व्यवस्थाएं, रूढ़ियाँ, रीती-रिवाज, सामूहिकता, सहयोग एवं समानता की भावनाएं, धार्मिक और अध्यात्मिक आस्थाएँ, अपनी भूमि से हमारा अटूट सम्बन्ध, हमारी सम्पूर्ण जीवन शैली, और चिंतनधारा, हमारी सामाजिक संरचना के प्रमुख संगठनात्मक अंग प्रत्यंग हैं। इस प्रकार हमारी सांस्कृतिक एकरूपता हमारे समाज की संरचनात्मक तथा संगठनात्मक शक्ति और अस्तित्व के लिए आवश्यक और अपरिहार्य है। हो' समाज को भारत का संविधान के अनुच्छेद ३४२ के अधीन प्रदत शक्तियों का प्रयोग करते हुए भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राज्य के राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् अनुसूचित जनजाति की सूचि में सन १९५० की पहली अधिसूचना में सम्मिलित किया गया था। महामहिम राष्ट्रपति द्वारा जिन पॉँच प्रमुख विशेषताओं की कसौटी के आधार पर किसी जाति विशेष को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल किया जाता है, वे इस प्रकार हैं :- १- आदिम विशिष्टताएं २- भिन्न संस्कृति, ३- मुख्यधारा के प्रति संकोची स्वभाव, ४- भोगोलिक अलगाव, तथा ५- आर्थिक पिछड़ापन। यानि बच्चे के जन्म समय तीर को (सर सिदुब) जमीं में धंसा के रखना, बच्चे को गोद में लेकर पवित्र आदिंग में ले जाना (कोयोंग आदेर), विवाह संस्कार एवं मृत्यु संस्कार के आदिवासी अनुष्ठान पूरा करते हैं तभी हम आदिवासी हो' का दर्जा पाते हैं। अन्यता आसाम के आदिवासिओं का हश्र हमारे साथ भी होने वाला है। उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान जैसे की हमारी भाषा, जन्म विवाह एवं अन्तिम संस्कार, पर्व त्यौहार, धार्मिक विश्वास एवं आस्था, आदिंग, सासन, देसौली और हमारी लोक-कथाओं को छोड़ दिया, और आपातकालीन विघटनात्मक परिस्तिथियों का सामना करना पड़ रहा है। आज हम भी अन्य धर्मों और देवी-देवताओं, पर्व-त्योहोरों और शादी-विवाह के संस्कारों का नक़ल करने लगे हैं, अपनी मातृभाषा का उपेक्षा करने लगे हैं, अपने आदिंग, सासन, देसौली की पवित्रता बनाय रखने के नियमों का पालन करने में लापरवाही बरतने लगे हैं। इस प्रकार जिन सांस्कृतिक पहलुओं ने हमें एकसूत्र में सँजोकर एक सामाजिक पहचान दी है, और हमें संगठित कर रखा है, उन संस्कृति के आधार स्तंभों को हम अपने क्रियाकलापों से अनजाने में या हीन-भावना से ग्रस्त होकर या फिर मिथ्या अंहकार और आडम्बर के चक्कर में अपूर्णनिये क्षति पहुचाकर स्वयें अपने समाज के प्रति अपराध कर रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं।
भारत के संविधान के मूल-अधिकार के अर्न्तगत १३(३) एवं २९(१) के अधीन हमें भी रुढ़िवादी प्रथा एवं संस्कृति की रक्षा का मूल- अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन यदि हमने अपनी सांस्कृतिक पहचान खो दी तो संविधान की पांचवी अनुसूची में दिए गए प्रावधानों से भी वंचित किए जा सकते हैं। अनुच्छेद ३४२ हमारे लिए निष्प्रभावी हो जाएगा, और हम आदिवासी से अन्य धर्मावलम्बी बना दिए जायेंगे। अत: हमें याद रखना चहिये, की जहाँ हमारी संस्कृति हमारी सामाजिक एकता और अस्तित्व का आधार है, वहीं हमारी संस्कृति ही हमारे सामाजिक अस्तित्व का अभेद रक्षा कवच भी है। यदि संस्कृति दूषित हुई तो हमारे सामाजिक विघटन को रोकना असंभव हो जाएगा, जिसके जिम्मेवार कहीं हम ही तो नही?
भारत के संविधान के मूल-अधिकार के अर्न्तगत १३(३) एवं २९(१) के अधीन हमें भी रुढ़िवादी प्रथा एवं संस्कृति की रक्षा का मूल- अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन यदि हमने अपनी सांस्कृतिक पहचान खो दी तो संविधान की पांचवी अनुसूची में दिए गए प्रावधानों से भी वंचित किए जा सकते हैं। अनुच्छेद ३४२ हमारे लिए निष्प्रभावी हो जाएगा, और हम आदिवासी से अन्य धर्मावलम्बी बना दिए जायेंगे। अत: हमें याद रखना चहिये, की जहाँ हमारी संस्कृति हमारी सामाजिक एकता और अस्तित्व का आधार है, वहीं हमारी संस्कृति ही हमारे सामाजिक अस्तित्व का अभेद रक्षा कवच भी है। यदि संस्कृति दूषित हुई तो हमारे सामाजिक विघटन को रोकना असंभव हो जाएगा, जिसके जिम्मेवार कहीं हम ही तो नही?
Comments