आबुआ दिशुम आबुआ राज आबुआ दोस्तूर ---

आदिवासी पहचान के नाम पर भले ही झारखण्ड बने १० वर्ष गुजर गए हों, परन्तु कोल्हान के हम आदिवासी आज भी अपने नसीब की लड़ाई ही लड़ रहे हैं। जल, जंगल, जमीन में आश्रित आदिवासी-जीवन पहाड़ी नालों, झरनों एवं आसमानी वर्षात के भरोसे धान, दलहन एवं तिलहन की फसल उगाकर माड़-भात का जुगाड़ कर ही लेते थे। साल के बचे-कुचे दिनों में कंद-मूळ, फल-फूल, के आलावे वनोत्पाद को संग्रह एवं चीजों को आदला-बदली कर अपनी जीविका चला लेते थे। गरीब हो या आमीर, आदिवासी समाज के सभी ३२ समुदायों के लोग गाँव में मानकी एवं मुंडा के नेतृत्व में स्वशासन व्यवस्था में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं नैतिक रूप से एकजुट थे। प्रकृति को रिझाने के लिए सिंग्वोंगा, देशौली, जयरा, बुरु वोंगा, नागे एरा- विंदी एरा की उपासना हम भूखे पेट भी मांदर और नगाडे की धुनों पर एक साथ थिरकते थे। दूर गाँव से आती लोक धुनों पर हमारी दुनिया मदमस्त हो जाया करती थी। हम प्रकृति में धार्मिक आस्था रखते थे, हमारे सभी देवी-देवता प्रकृति के ही अंग रहे हैं। समाज के किसी भी व्यक्ति को चोट लगती थी तो चोट का अहसास समाज को होता था। 'हातू दुनुब' में पंचों द्वारा सभी मामले चाहे वह फौजदारी हो या घरेलु झगडा हो या जमीन-जायदाद का मामला हो निपटारे किए जाते रहे थे। इन सभी प्रक्रियाओं में हमने दुनिया के सामने नजरें झुकने की नौबत नही आने दी। यह हमारा स्वर्णिम काल था, जिसे हम आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक रूप से स्वतंत्र ही नही सबलता का प्रतीक भी मान सकते हैं।
अंग्रेज आए, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लालच ने उन्हें भी कोल्हान सरीके आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए प्रेरित किया, चूंकि मुलता: वे लुटेरे थे, किंतु कोल्हान के बारे कहा जाता था की कोई भी बाहरी या दीकू व्यक्ति यदि कोल्हान में घुस आय तो वापस जिन्दा नहीं निकल सकता था। १7७० के दशक से कोल्हान पर बार बार कब्जा का प्रयास हुआ, किंतु रिजल्ट सिफर ही रहा। बल्कि उनके सैकडों सैनिक मारे जाते रहे। इसका जिक्र उन्होंने या बाद में भी किसी इतिहास में दर्ज नही किया गया है। क्योंकि कोई लुटेरा शायद ही अपनी हार को इतिहास में दर्ज करना पसंद करे। इस बीच अंग्रेजों ने पहचाना की कोल्हान के "हो" लोगों की मुख्या व्यवस्था उनकी स्वशासन व्यवस्था है मानकी-मुंडा व्यवस्था है और यही व्यवस्था इस समाज की रीढ़ है। अपने कूटनीतिक प्रयासों से कभी जल तो, कभी जंगलों को अंग्रेजों ने अपने कानूनों के अर्न्तगत लाया। जिसे तत्कालिन नेतृत्व (मानकी-मुंडा) नही समझ पाया। चाहे लोभ के कारन हो या अज्ञानता के कारन लेकिन अंत में कम तो नही किंतु अतिमहत्वपूर्ण समझौता "अबुआ दिशुम अबुआ राज अबुआ दोस्तूर" को अंग्रेजों ने बंगाल रेगुलेशन १३ सन १८३३ एवं विलकिंसन'से रूल्स के रूप में स्वीकार किया। यह लिखित इतिहास में आदिवासिओं का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। फिर भी कोल्हान दुनिया के सामने वीर स्वतंत्र आदिवासिओं का इलाका बना रहा।
आजाद भारत के बिहार राज्य में आदिवासी कल्याण के नाम पर करोड़ों रुपए केन्द्रिये राशि पटना में ही बंट जाता था, किंतु आज अलग झारखण्ड में मुंह दिखाई के बाद बंट जा रहा है। शायद फर्क इतना हो गया की पहले सिर्फ दिकु लोग भ्रष्टाचार से पैसा हड़प लेते थे, आज आदिवासी मंत्री एवं मुख्यामंत्रिओं ने भी इसका स्वाद चख लिया है, और पिछले दस सालों में हमारे सामने उद्योग, खनन, डैम, शहरीकरण, सड़क विस्तारीकरण के नाम पर हमारे सामने विस्थापन मुंह बाएं खड़ी हो गई है, तो कोर्ट कचहरी में न्याय के नाम पर शोषण और ब्लाक अंचल से लेकर आयुक उपायुक्त के कार्यालय तक भ्रष्टाचार विकास के नाम पर हमारी नियति बना दी गई है। ठेकेदारी प्रथा ने विकास के सारे रास्ते अपनी ओर मोड़ लिए हैं। और हम अपनी जल, जंगल जमीन रूपी संपदा को अपनी जीविका के रूप में इस्तमाल करने से भी महरूम किए जा रहे हैं। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के इस दौड़ में मंत्री से लेकर संत्री तक पुरा सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार में आकंट दूब जाने से हमने पुरखों की पुख्ता पारंपरिक व्यवस्था की लड़ाई छोड़ इनको देखने में लग गए। सम्पूर्ण आदिवासी समाज अपने आत्मसम्मान, पहचान एवं स्वाभिमान की व्यवस्था "आबुआ दिशुम, आबुआ राज, अबुआ दोस्तूर" को क्या भूल गई है ? क्या वे सरकारी तंत्र से चलने वाली व्यवस्था से खुश हैं, अघोषित किंतु व्यवहार में लागू पंचायत व्यवस्था से खुश हैं? अंग्रेजों को, राजाओं को चट्टी का दूध याद दिलाने वाली व्यवस्था मानकी मुंडा, पञ्च-परगनैत आदि व्यवस्थाएं चुप क्यों हैं? क्या यह मान लेना जल्दबाजी नही होगी की यह स्वशासन व्येवास्था अब इतिहास की बात हो गई है? क्या भ्रष्टाचार, पलायन, विस्थापन, गरीबी, अशिक्षा, निम्न स्वस्थ्य हम पर थोपी गई मजबूरी नही है? ये सब सामाजिक विकृतियाँ हैं, और इन्ही विकृतियों के कारन समाज विकास की दौड़ में पीछे जा रहा है। इसका समाधान हमारी संस्कृति में है। आदिम युग में हमारे पूर्वजों ने अपने दीर्घ जीवन-संघर्ष के उपरांत जो जीवनमूल्य प्राप्त किया वही हमारी संस्कृति बनती गई। जीने की इस सर्वोत्तम कला को हम संस्कृति कहते हैं और उस संस्कृतिक विरासत को नही भूलना चाहिए जो "आबुआ दिशुम अबा राज ----" की मूळ भावना है।

Comments

Unknown said…
Aapka abhut bahut dhany baad bauteo ..etna acchi acchi baaton k liy koshish karunga ki aapke is blogg k bare kisi aur ko b bataunga