विकास में बाधक तत्कालिन राजनीती

कोल्हान सहित आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी और निम्न स्वस्थ्य ही प्रमुख समस्याएं हैं। पहले ज़माने को देखें तो हम पाएंगे की हम आदिवासी पहले काफी समृद्ध थे। खेतों में फसल लहलहाते थे, केंचुआ एवं घास फूस के सड़ने से खाद की कमी पुरी होती थी। खेतों में अलग से खाद की आवस्यकता कभी नही पड़ती थी। वर्षा नियमानुकूल होती थी और आदिवासी जीवन उस प्रकृति के नियम को अच्छी तरह पढ़ सकते थे और अपने दैनिक कार्यों को उसी अनुसार संपादित करते थे। देवी-देवता सभी प्रकृति के अंग ही रहे हैं। जैसे हो समाज में सिंग्वोंगा, देशौली, जयरा, हातूगैन्शिरी, मरंग वोंगा, बुरु वोंगा, गुरु वोंगा, नागे एरा-विंदी एरा, पौंडी आदि। इसको खुश करने के लिए अलग अलग अनुष्ठान एवं पर्व-त्यौहार के बलबूते अपनी पहचान को आगे बढ़ते रहे, जीवन खुशी पूर्बक जीते रहे।
हर खेत में समय पर पानी उबलब्ध होता था, इसीलिए हर हाथों को कम उपलब्ध रहा करता था। धान, तिलहन, दलहन, से लेकर साग-सब्जी को उपजा कर अपने जीवन को प्रकृति के अनुकूल जीते रहे। साथ ही प्रकृति में मौजूद लाखों औशिधिये पौधों के गुणों से आदिवासी अपने शरीर को रोगमुक्त बने रखते थे। समय बदला, परिस्थितियाँ बदली। बाहरी समाजों के संपर्क में आने पर उनके धर्म-दस्तूरों, संस्कृति के दिखावेपन ने आदिवासी समाज पर गहरा असर छोड़ा, नतीजा आदिवासिओं ने पृथ्वी के सृजन के समय से चले आ रहे जीवन पद्धति को जाने-अनजाने या बाहरी समाज को देखते हुए नजर अंदाज करना शुरू कर दिया। जिसका व्यापक असर इस पुरे विश्व में दिखा। इस प्रकृति में जीवन शैली के क्रम में आनेवाली सभी समस्याओं का निदान है, किंतु मानव ने दंभ में इसी प्रकृति से कई मामलों में सीधी टक्कर लेना शुरू किया। उदाहरन के तौर पर आज सर दर्द होने पर पेनिसिलिन की गोली हम बाजार से लेते हैं, किंतु पहले यह जंगलों के पेड़ों के छालों में बहुतायत में पाया जाता था। पूंजीवाद के आगमन होने पर जल्दी से जल्दी पैसा कमाने के लिए पूंजीपतियों ने बहुत तेजी से उन छालों को पेड़ों से उख्ड़ोवाया, जिसके फलस्वरूप वैसे पेड़ इस पृथ्वी से पूर्णत: नष्ट हो गए। फिर भी पूंजीपतियों की भूख नही मिटी तो एक रासायनिक विधि निकाल ली गई और आज हम सर या अन्य दर्द होने पर रासायनिक विधि से तैयार दवा खाने पर मजबूर हैं। जिसका साइड इफेक्ट हमें मुफ्त में मिलता है, जिससे हमारे शरीर को अपूर्णनीय क्षति हो रही है।
इस तरह से खेतों में काम एवं जंगली औषधियों के सहारे हम सम्पूर्ण बौधिक विकास के गवाह रहे हैं। इनके प्रकृति से अत्यधिक दोहन के कारण अन्य समस्याएं यथा बेरोजगारी, आशिक्षा, पलायन, विस्थापन आदि भौतिक समस्याएं आज लाद दी जा रही है। जबकि सिर्फ हर खेतों को पानी पहुँचने/मिलने मात्र से हम आदिवासिओं का अधिकतर समस्या ख़त्म हो सकता है, किंतु अदूरदर्शी राजनितिक नेताओं के कारण आज यह किसी राजनितिक पार्टी का एजेंडा नही बन पता। आज एजेंडा आदिवासिओं को शोषित करने के विभिन्न तरीकों को ही कहा जाता है। बाहरी समाज के प्रभाव में जी रही आदिवासी अपने ही घर में बारूद लगा रहे होते हैं, जिसका आभास उन्हें घर के विस्फोट में उड़ने के बाद पता चलता है।
संस्था, संघटन एवं राजनितिक दल अपने सामाजिक जिम्मेदारी से कोषों दूर हैं यही कारण है की आज जब चुनाव आता है तो पैसे के बल पर हंडिया दारू का प्रचालन जोर पकड़ लेता है। यहाँ के हम आदिवासी यह तक नही सोच पाते की लाखों-करोड़ों रुपये पैसे चुनाव के दरम्यान जो राजनितिक प्रतिनिधि खर्च करते हैं वह काला धन होता है। काला धन का मतलब होता है अवैध तरीके से जमा किया गया पैसा। भ्रष्टाचार से प्राप्त किया हुआ पैसा। और यह पैसा हम- आपके मेहनत का ही पैसा है, पसीने की कमाई का हिस्सा है। बाजार से जो भी वास्तु हम खरीदते हैं उन सबमें टैक्स जुड़ा होता है और विकास एवं कल्याण के कार्यों में लगाने के लिए पुन: हमारे पास विभिन्न योजनाओं के माध्यम से भेजा जाता है। तब यही राजनितिक तंत्र वाले लोग अपनी कुटिल चाल से नौकरशाह एवं ठेकेदारी प्रथा के द्वारा भ्रष्टाचार से वह पैसा हड़प लेते हैं। गरीबों, आदिवासिओं के नाम पर उनकी विकास एवं कल्याण के नाम पर पैसा आता है, किंतु प्रतिमाह हमारे ही मेहनत के पैसे से तनख्वाह पाने वाला नौकरशाह उसमें सेंधमारी कर ग़लत तरीके से हड़प कर अपने, ठेकेदार एवं नेताओं के बीच बांटता है, विकास या कल्याण के लिए आया पैसा जरुरत मंद के पास न पहुंचे इसकी पूरी व्यवस्था का तंत्र ये लोग बुने होते हैं। और हम आदिवासी उसके शिकार हो जाते हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में राशन कार्ड, लाल कार्ड, बी.पि.एल.कार्ड आदि के लिए मारामारी होती है। प्रशासन को गाली दिया जाता है की सभी गरीबों को कार्ड दो और यह प्रयास सभी राजनितिक दलों का मुख्या एजेंडा में से एक होता है। की हम आपको कार्ड दिलवा देंगे आदि-आदि।
प्रशासन से जानकारी लेने पर जवाब मिलता है की हमें प्रत्येक गाँव में ५० ही बी.पि.एल.कार्ड जरी करने का आदेश मिला है। ५१ वां यदि जारी करेंगे तो उसको राशन पानी या तो अपनी जेब से देनी पड़ेगी या उसे राशन नही मिलेगा। इस तरह भले ही किसे गाँव में १०० गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग हों, किंतु कार्ड का लाभ सिर्फ ५० को ही मिलेगा। अब प्रशन उठता की प्रशासन को यह आदेश आता कहाँ से है की सिर्फ ५० की कार्ड बाँटने हैं। यह आदेश आता है सरकार से संसद एवं विधानसभा से। वहां कैबिनेट द्वारा यह निर्णय होता है की प्रत्येक गाँवमें कितने व्यक्तियों को कार्ड की सुविधा देनी है, कितने को नही, किसको देनी है, किसको नही। और उस कैबिनेट में कौन-कौन बैठते हैं? कौन वहां पर निर्णय करते हैं की प्रत्येक गाँव में क्या-क्या योजना दिया जाय ? हमारे द्वारा चुने हुए नेता... वही लोग नीतियाँ बनते हैं की आदिवासिओं को क्या-क्या सुविधाएँ दिया जाय। आदि आदि। निति बनने के पश्चात् आदेश जारी किया जाता है, जिसपर सरकारें अमल करते हैं। सिद्दंत्त: इस प्रकार से पूरी तरह से हमारे नेता ही हमारे खिलाफ नीतियाँ बना रहे होते हैं किंतु सरकारी पदाधिकारिओं द्वारा लागू कराय जाने के कारण हमारा गुस्सा प्रशासन पर उठाना स्वाभाविक है। मुख्या दोषीदार तो नेता हैं और यह इसीलिए हो रहा है क्योंकि हमारे इन नेताओं को हम आदिवासिओं के गौरवशाली इतिहास का ज्ञान नही है। जल-जंगल-जमीन पर हम आदिवासिओं के अविनिमेय अधिकार को वे नही जानते या जानना नही चाहते। चुनाव के समय काले धन का उपयोग के कारण कई पूंजीपतियों से सांठ-गांठ हो जाती है, और नेता बनने के बाद भले ही वह नेता हजाओं वोट ले लिया हो किंतु एक वोट देनेवाला उस पूंजीपति को फायदा पहुँचाने का नीति पर दस्त्कत कर देता है। यही जब सरकार से नीति बन कर आता है, तो डैम, उद्योग, खनन आदि नही करने देने के लिए "जान देंगे मगर जमीन नही देंगे" का नारा बुलंद होता है क्योंकि किसी भी नेता में क्षेत्र के लोगों की भावनाओं को समझने की अक्ल नही होती है। हमसे सलाह की जरुरत महसूस नही की जाती जिसके फलस्वरूप सरकारी नीतियों के खिलाफ विभिन्न संगठन बनाकर हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर किए जाते हैं। हमारा पूरा ध्यान अपने अस्तित्व की रक्षा में समर्पित हो जाता है और नेता, नौकरशाह और ठेकेदार ऐसे मौकों को भी पैसा कमाने में लगा देते हैं। विकास की परिभाषा स्पष्ट नही है इसीलिए किसे एक समाज का विकास होता है तो कई समाजों का उसमें विनाश लिखा जाता है। विनाश में लील आदिवासी पाँच वर्षों बाद पुन: याद किए जाते हैं। इन पाँच वर्षों में ख़ुद के द्वारा उत्पन्न समस्यायों से निजात दिलाने का वायदा होता है, उस समय ख़ुद भी "जान देंगे जमीन नही देंगे" का नारा बुलंद कर लेता है, किंतु चुनाव जीतने के बाद सर्वप्रथम अधूरे योजना को पुरा करने के लिए M.O.U आगे बढाया जाता है। आदिवासी मरता है तो मरने दो, चिल्लाता है तो चिल्लाने दो, ज्यादा हल्ला करे दो -चार रोटी के टुकड़े डाल दो, फिर भी नही माने तो अपनी गाड़ी को ख़ुद ही जलाकर केस करने से लेकर पुलिस का लाठी-डंडा एवं कानून का चाबुक चलाना का घिनोना प्रयास अक्सर आदिवासिओं को डराने का बना बनाया नुस्का है। जिससे हमें रूबरू होना पड़ता है।
इससे निजात पाने के लिए एक इमानदार प्रयास की आवश्यकता है। एक प्रयास सम्पूर्ण देश के आदिवासिओं को एक की मंच पर लाने का प्रयास और १२ करोड़ आदिवासी यह जान जायें की आज तक उनके साथ सिर्फ छल-कपट किया गया है, उन्हें ठगा गया है, उनकी योजनाओं को लूटा गया है। उनकी अस्मिता के साथ बलात्कार किया गया है, तो निसंदेह आदिवासिओं से सम्मान में नई इबारतें लिखी जायेगी, नए रास्ते बनाये जायेंगे, और विश्व के अन्य समाजों के साथ आदिवासी समाज भी सर उठाकर जी सकेगा, ऐसा हमारा विश्वास है.

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