कहते हैं की इतिहास अपने को दोहराता है अर्थात विगत काल में मानव समाज के साथ गुजरी हुई घटनाएँ और दुर्घटनाएं नए-नए रूप धर कर बार-बार लौट आती रहती है। इसीलिए जागरूक लोग इतिहास से सबक लेकर दुखद दुर्घटनाओं से बचने के उपाय पहले से ही ढूंड लेते हैं, लेकिन लोभग्रस्त लोग न तो इतिहास से सबक लेते हैं और न बार-बार ठोकरें खाने के बाद भी होश में आते हैं। लोभ व्यक्ति को अँधा बना देता है और एक दृष्टिहीन व्यक्ति से दूरदृष्टि की आशा कैसे की जा सकती है? तो इस दृष्टिहीनता का मुख्या कारण है लोभ-बिना परिश्रम के मुफ्त अथवा भ्रष्टाचार या बेईमानी से धन प्राप्त करना।
लगभग आधी शताब्दी पूर्व हमारा देश विदेशी उपनिवेशवादियों के चंगुल से एक लंबे संघर्ष और बलिदान के परिणाम स्वरुप मुक्त हुआ था। झारखण्ड के स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास आजादी के ऐसे ही दीवानों के लहू से लिखा हुआ है, जिन्होनें एक हाथ में तीर कमान और दूजे में प्राण लिए विदेशी फौज के गोलियों और तोप के गोलों को छातियों पर झेला था। पोटो सरदार जैसे लोगों ने फाँसी के फंदों को झुला मान कर खेला था।
झारखंडी इतिहास फिर अपने को दोहरा रहा है। उपनिवेशवाद का बहुरुपिया फिर एक बार नया मुखौटा लगा कर झारखंडियों के बीच पैठ बना चुका है, लेकिन अब उसके हाथों में न तो तोप है, न बंदूक है बल्कि रुपये-पैसों से भरे संदूक हैं, जिनकी मार गोलियों से भी कहीं अधिक घातक है, क्योंकि एक गोली केवल एक या बहुत हुआ तो दो व्यक्तियों को मार सकती है, लेकिन रुपए-पैसों की मार के शिकार ऐसे असंख्य लोग हो जाते हैं, जिनके पल्ले एक पैसा भी नहीं पड़ता है। झारखण्ड तथा विशेष रूप से कोल्हान प्रमंडल की प्राकृतिक सम्पदा लार टपकाते राष्ट्रिये एवं अंतराष्ट्रीय पूंजीपतियों ने झारखंडी समाज में अपने गुर्गे छोड़ रखे हैं, जो झारखण्ड के विभिन्न सामाजिक संगठनों में, प्रशासनिक महकमों में और राजनितिक दलों में अपनी गहरी पैठ बना चुके हैं।
देश की स्वाधीनता के बाद से ही केन्द्र और राज्य की विभिन्न सरकारों ने अपनी उपनिवेशवादी निति से झारखण्ड को कभी मुक्त नहीं होने दिया है बल्कि एक दूरमारक साजिश के तहत झारखण्ड की शिक्षण संस्थाओं यानि प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं को जड़ से इतना खोखला बना दिया है की निकट भविष्य में उनके पुनर्जीवन की आशा दूर-दूर तक नजर नहीं आती। दूसरी ओर इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय लेकर अपनी ही पीठ थपथपाने का शर्मनाक तमाशा भी देखने को मिला। कोई ऐसे मियां मिट्ठुओं से पूछे के गत मेट्रिक परीक्षा में पश्चिम सिंहभूम के परीक्षा-परिणामों के फलस्वरूप कितने छात्र उक्त उच्च शिक्षण संस्थानों का लाभ ले पाएंगे? ऐसे छात्रों के लिए बिना रिश्वत के किसी भी सरकारी नौकरी में प्रवेश पाना लगभग असंभव होगा। अपने निरंतर विभाजित होते जोत-क्षेत्र से वे कितना उत्पादन कर पाएंगे? फ़िर ये छात्र कहाँ जायेंगे? क्या होगा इनके भविष्य का?
किसी भी सरकार ने झारखण्ड में कृषि की उन्नति के लिए अथवा सिंचाई की व्यवस्था के लिए कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया, क्योंकि हर सरकार उन पूंजीपतियों की मुट्ठी में रही है, जो झारखण्ड को अपने धंधे का एक मध्यम मात्र समझते रहे हैं और उनकी योजना यही है की झारखंड के आदिवासियों को भूमिहीन मजदूर बनाया जाय और मजदूरों के कानूनी अधिकारों से वंचित, गुलामों से भी बदतर ठेका मजदूरों के रूप में इस्तमाल किया जाय।
हमारा भारत देश महान एक लोकतान्त्रिक स्वाधीन देश का केंचुल उतार कर एक धन्तान्त्रिक धनाधीन देश की शक्ल अख्तियार करने की ओर तेजी से बढ़ रहा है, जहाँ किसी गरीब अथवा साधारण हैसियत वाले किसी नागरिक के संविधानिक अधिकारों या संसद और विधान-सभा में अनुसूचित जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों के आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा क्योंकि सर्वत्र धनतंत्र का बोलबाला होगा। वर्ष २००९ के संसदिये चुनाव प्रचार में करोड़ों रुपये जो खर्च किए गए हैं, वे पैसे कहाँ से आए? क्या वह काला धन नहीं है? और क्या इतनी भारी भरकम रकम के निवेश का आशय जनहित है? हमारी वर्तमान युवा पीढियों को इस यक्ष प्रश्न का उत्तर ढूँढना ही पड़ेगा अन्यता वे विलुप्त आदिवासी जातियों की सूची में अपनी जाति का नाम दर्ज करवाने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें ताकि उन्हें जोर का झटका धीरे से लगे।
लगभग आधी शताब्दी पूर्व हमारा देश विदेशी उपनिवेशवादियों के चंगुल से एक लंबे संघर्ष और बलिदान के परिणाम स्वरुप मुक्त हुआ था। झारखण्ड के स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास आजादी के ऐसे ही दीवानों के लहू से लिखा हुआ है, जिन्होनें एक हाथ में तीर कमान और दूजे में प्राण लिए विदेशी फौज के गोलियों और तोप के गोलों को छातियों पर झेला था। पोटो सरदार जैसे लोगों ने फाँसी के फंदों को झुला मान कर खेला था।
झारखंडी इतिहास फिर अपने को दोहरा रहा है। उपनिवेशवाद का बहुरुपिया फिर एक बार नया मुखौटा लगा कर झारखंडियों के बीच पैठ बना चुका है, लेकिन अब उसके हाथों में न तो तोप है, न बंदूक है बल्कि रुपये-पैसों से भरे संदूक हैं, जिनकी मार गोलियों से भी कहीं अधिक घातक है, क्योंकि एक गोली केवल एक या बहुत हुआ तो दो व्यक्तियों को मार सकती है, लेकिन रुपए-पैसों की मार के शिकार ऐसे असंख्य लोग हो जाते हैं, जिनके पल्ले एक पैसा भी नहीं पड़ता है। झारखण्ड तथा विशेष रूप से कोल्हान प्रमंडल की प्राकृतिक सम्पदा लार टपकाते राष्ट्रिये एवं अंतराष्ट्रीय पूंजीपतियों ने झारखंडी समाज में अपने गुर्गे छोड़ रखे हैं, जो झारखण्ड के विभिन्न सामाजिक संगठनों में, प्रशासनिक महकमों में और राजनितिक दलों में अपनी गहरी पैठ बना चुके हैं।
देश की स्वाधीनता के बाद से ही केन्द्र और राज्य की विभिन्न सरकारों ने अपनी उपनिवेशवादी निति से झारखण्ड को कभी मुक्त नहीं होने दिया है बल्कि एक दूरमारक साजिश के तहत झारखण्ड की शिक्षण संस्थाओं यानि प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं को जड़ से इतना खोखला बना दिया है की निकट भविष्य में उनके पुनर्जीवन की आशा दूर-दूर तक नजर नहीं आती। दूसरी ओर इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज और विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय लेकर अपनी ही पीठ थपथपाने का शर्मनाक तमाशा भी देखने को मिला। कोई ऐसे मियां मिट्ठुओं से पूछे के गत मेट्रिक परीक्षा में पश्चिम सिंहभूम के परीक्षा-परिणामों के फलस्वरूप कितने छात्र उक्त उच्च शिक्षण संस्थानों का लाभ ले पाएंगे? ऐसे छात्रों के लिए बिना रिश्वत के किसी भी सरकारी नौकरी में प्रवेश पाना लगभग असंभव होगा। अपने निरंतर विभाजित होते जोत-क्षेत्र से वे कितना उत्पादन कर पाएंगे? फ़िर ये छात्र कहाँ जायेंगे? क्या होगा इनके भविष्य का?
किसी भी सरकार ने झारखण्ड में कृषि की उन्नति के लिए अथवा सिंचाई की व्यवस्था के लिए कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं किया, क्योंकि हर सरकार उन पूंजीपतियों की मुट्ठी में रही है, जो झारखण्ड को अपने धंधे का एक मध्यम मात्र समझते रहे हैं और उनकी योजना यही है की झारखंड के आदिवासियों को भूमिहीन मजदूर बनाया जाय और मजदूरों के कानूनी अधिकारों से वंचित, गुलामों से भी बदतर ठेका मजदूरों के रूप में इस्तमाल किया जाय।
हमारा भारत देश महान एक लोकतान्त्रिक स्वाधीन देश का केंचुल उतार कर एक धन्तान्त्रिक धनाधीन देश की शक्ल अख्तियार करने की ओर तेजी से बढ़ रहा है, जहाँ किसी गरीब अथवा साधारण हैसियत वाले किसी नागरिक के संविधानिक अधिकारों या संसद और विधान-सभा में अनुसूचित जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों के आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा क्योंकि सर्वत्र धनतंत्र का बोलबाला होगा। वर्ष २००९ के संसदिये चुनाव प्रचार में करोड़ों रुपये जो खर्च किए गए हैं, वे पैसे कहाँ से आए? क्या वह काला धन नहीं है? और क्या इतनी भारी भरकम रकम के निवेश का आशय जनहित है? हमारी वर्तमान युवा पीढियों को इस यक्ष प्रश्न का उत्तर ढूँढना ही पड़ेगा अन्यता वे विलुप्त आदिवासी जातियों की सूची में अपनी जाति का नाम दर्ज करवाने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें ताकि उन्हें जोर का झटका धीरे से लगे।
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