आरक्षण एवं आदिवासी

आसाम के आदिवासियों का अनुसूचित जनजाति की मांग बिल्कुल जायज थी। आज आदिवासियों की जनसँख्या भारत की कुल आबादी का ८.०२ % है। आदिवासी जनसँख्या देश के कुल भूभाग के १५% हिस्से में वास करती है, जिसमें मैदान, जंगल, पहाड़, तथा नहीं पहुँच सकने वाले दुर्गम इलाके शामिल हैं। ये आदिवासी समूह सामाजिक, आर्थिक, एवं शिक्षण के विभिन्न स्टारों में संघर्षशील हैं। इनके जनसँख्या का वृदि दर २००१ के जनगणना के आधार पर २१.०३% रहा जो सामान्य(२१.३५%) से कम है। भारत सरकार ने अब तक ६९७ आदिवासी समूहों को संविधान के अनुच्छेद ३४२ के तहत अनुसूचित जनजाति का विभिन्न आदेशों के मध्यम से दर्जा दिया हैं। इसमें कई आदिवासी समूह एक से ज्यादा प्रदेशों में रहते हैं। सर्वप्रथम अनुसूचित जनजाति शब्द संविधान के अनुच्छेद ३६६(२५) में आया जिसमें कहा गया है की "अनुसूचित जनजाति ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों के भाग से अभिप्रेत है जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद ३४२ के अधीन अनुसूचित जनजातियाँ समझा जाता है।
आदिवासियों की पहचान के लिए १९६५ में लोकर कमिटी का गठन कर तय किया गया की अनुसूचित जनजाति में उन समुदायों को लाया जाएगा १-जिनमें मानव विकास के शुरूआती स्तर के लक्षण हों। २-जिनमें औरों से भिन्न अपनी अलग संस्कृति हों। ३- भौगोलिक रूप से जंगल एवं अन्य समुदायों से अलग स्थानों में वास करते हों। ४- बड़े समुदायों से अपने को अलग रखने की प्रवृति एवं लज्जापन तथा ५- अत्यन्त पिछडापन आदि।
दुर्भाग्य की बात है की ऊपर लिखित विधियां संविधान तक में निहित नहीं है और विभिन्न पार्टी की सरकारों के रवैये पर निर्भर रहती है। मौजूदा हालत में कोई भी राजनितिक पार्टी आदिवासियों की आवाज इसीलिए सुन नहीं पा रही है क्योंकि आदिवासी वोट बैंक के रूप में अपने को संघटित नहीं कर पाए हैं। यही कारण हैं की आदिवासियत को पहचानने से सम्बंधित आवश्यक कानून जैसे की ऊपर में कहा गया है की अनुच्छेद ३४२ के तहत अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलवाने के पुख्ता प्रबंध थे जिन्हें अस्पष्ट करने के मकसद से सरकारें प्रयत्नशील रही है। और सभी राजनितिक पार्टियाँ अपने निजी स्वार्थ के लिए कोई आवाज तक नहीं किया है। आदिवासी अशिक्षित हैं अत: कानून की जानकारी नहीं होने के कारण संविधानिक रूप से दबाव देने में सफल नहीं होते। रही सही कसर जनप्रतिनिधि निकाल लेते हैं। आसाम के घटनाक्रम पर पूरा देश शर्मशार हुआ परन्तु पार्टी लाइन के कारण झारखण्ड के सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों ने यह भी मुनासिप नहीं समझा की आदिवासी हित के खातिर एक मंच पर आकर आदिवासी भाइयों के लिए प्रयास किया जाए। झारखण्ड के मुखिया उस समय मधु कोडा थे, ख़ुद हो हैं परन्तु तथाकथित रूप से आदिवासी हो' समसान लागुरी की आसाम की घटना में मौत होने पर एक बयान तक नहीं दिया। उन्हें चाहिए था की एक प्रतिनिधिमंडल लेकर आसाम सरकार से आसाम के आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने का पहल करना चाहिए था। बात साफ है मुख्यमंत्री को कमीशन खाने से फुर्सत नही था। इसीलिए किसी ने सही ही कहा है की जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था।
यही समय है अपने अहम् को को त्याग कर सभी आदिवासी संघटनों को एकजुट होकर ऊपर लिखित प्रावधानों को संविधानिक हक़ के लिए संघर्ष करने की आवश्यकता है। और इसी कड़ी ने अखिल भारतीये आदिवासी महासभा को जन्म दिया है। चूंकि यह सर्वविदित है की जो यहाँ पर आदिवासी है वाही आसाम में है, आम का पेड़ आसाम जाकर कद्दू का पौधा नही बन जाता।

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