1997 में समता जजमेंट के बाद से ही हिंदुस्तान की सरकारों ने पूंजीपतियों को खान-खनन एवं उद्योगों के नाम पर लाभ पहुंचाने के लिए गुपचुप तरीके से पांचवी अनुसूची को ही समाप्त करने की साजिश रच रहे थी। किन्तु उस समय देश भर के सामाजिक संगठनों को इसकी भनक लग गई। व्यापक विरोद प्रदर्शनों के बाद सरकार ने पांचवी अनुसूची पर किसी भी तरह के संसोधनों से इंकार किया था। समता जजमेंट मूलत: पांचवी अनुसूची की ही व्याख्या है, जिसके अनुसार प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासिओं का अविनिमेय अधिकार है, और आदिवासियों की जमीन कोई भी गैर आदिवासी किसी भी प्रयोजन के लिए नहीं ले सकता है, यहाँ तक की सरकार भी आदिवासियों की जमीन नहीं ले सकती है। इसी पांचवी अनुसूची के अकाट्य कवच को भेदने के लिए पंचायत व्यवस्था को आज आदिवासी क्षेत्रों में थोपा जा रहा है। पंचायत व्यवस्था एक तरह से पांचवी अनुसूची पर एक हमला है, जिससे आदिवासी अधिकारों को समाप्त किया जा सकेगा, लूटा जा सकेगा।
पांचवी अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों के नियंत्रण एवं प्रशासन के लिए जनजातिय परामर्शदात्री परिषद (टी.ऐ.सी.) की सलाह आवश्यक है, यानि परिषद् से बिना अनुमोदन कोई भी कानून अनुसूचित क्षेत्रों को लागू नहीं होगा, साथ ही उसे लागू करने के लिए राज्यपाल लोकाधिसुचना जारी करेंगे। झारखण्ड पंचायती राज व्यवस्था के लिए राज्यपाल ने अध्यादेश जारी किया है, जो सामान्य क्षेत्र के लिए तो वैध हो सकता है, किन्तु अनुसूचित क्षेत्र के लिए वैध नहीं है। संसद में अनुसूचित क्षेत्र के कल्याण एवं उन्नति के लिए चर्चा होना गलत तो नहीं, किन्तु उसे आदिवासी इलाकों में लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि टी.ऐ.सी.का यह काम है की अपवादों एवं उपन्तारानों के अधीन रहते हुए शांति एवं सुशासन के निमित प्रस्ताव को पारित किया जाय। दूसरी कोई संस्था संविधानिक तौर पर इस पर बहस नहीं कर सकती। इसी अकाट्य लाइन को तोड़ने के हैसियत से ही उच्चतम न्यायलय ने भी अपने केस सिविल अपील संख्या 484 -491, 2006 के आदेश संख्या 5 में स्पष्ट कर दिया है की "चूंकि इस राज्य में पंचायत राज व्यवस्था नहीं है, इसीलिए टी.ऐ.सी.का गठन इन अनुसूचित क्षेत्रों के लिए किया गया है। सोचिये इसका मतलब यही हुआ की पंचायत व्यवस्था हो जाने से टी.ऐ.सी.समाप्त की जा सकेगी, यानि पांचवी अनुसूची पर बहुत बड़ा प्रशन चिन्ह लगने वाली है।
पांचवी अनुसूची आदिवासियों के जमीन को किसी भी रूप में गैर आदिवासी एवं सरकार को हस्तांतरण करने की मनाही करती है। किन्तु एक स्वाभाविक बात आज के दिन में देखें तो चुनाव के समय आदिवासी हंडिया-दारू एवं कुछ रुपयों में अपना वोट ख़ुशी-ख़ुशी बेच देते हैं। पेसा कानून जो पंचायत का ही विस्तार है की ग्राम सभा की अनुमति के वगैर गाँव की जमीन अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। किन्तु उपरोक्त वाक्यों से यह सर्वविदित है की हंडिया-दारू एवं कुछेक पैसों में उसी वोट की तरह खाली कागजों में अंगूठा छाप एवं हस्ताक्षर से अपनी जमीन भी बेच दी जाएगी, जैसा की छत्तीसगढ़ और आंद्र प्रदेश में पूंजीपतियों ने गाँव के कुछ लोगों को पकड़कर हजारों हजार एकड़ जमीन ग्राम सभा की अनुमति से हड़प ली है और अपना उद्योग स्थापित किया है।
इस तरह पंचायत व्यवस्था पांचवी अनुसूची पर एक बहुत बड़ा हमला है, इसे हमें समझना होगा, और अपने दुश्मन को पहचानना होगा। पंचायत पैसा की व्यवस्था को लोगों तक पहुचाने की व्यवस्था है, भले ही इसमें आदिवासी हक़ और अधिकारों की बलि ही क्यों न देनी पड़े।
पांचवी अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों के नियंत्रण एवं प्रशासन के लिए जनजातिय परामर्शदात्री परिषद (टी.ऐ.सी.) की सलाह आवश्यक है, यानि परिषद् से बिना अनुमोदन कोई भी कानून अनुसूचित क्षेत्रों को लागू नहीं होगा, साथ ही उसे लागू करने के लिए राज्यपाल लोकाधिसुचना जारी करेंगे। झारखण्ड पंचायती राज व्यवस्था के लिए राज्यपाल ने अध्यादेश जारी किया है, जो सामान्य क्षेत्र के लिए तो वैध हो सकता है, किन्तु अनुसूचित क्षेत्र के लिए वैध नहीं है। संसद में अनुसूचित क्षेत्र के कल्याण एवं उन्नति के लिए चर्चा होना गलत तो नहीं, किन्तु उसे आदिवासी इलाकों में लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सकता, क्योंकि टी.ऐ.सी.का यह काम है की अपवादों एवं उपन्तारानों के अधीन रहते हुए शांति एवं सुशासन के निमित प्रस्ताव को पारित किया जाय। दूसरी कोई संस्था संविधानिक तौर पर इस पर बहस नहीं कर सकती। इसी अकाट्य लाइन को तोड़ने के हैसियत से ही उच्चतम न्यायलय ने भी अपने केस सिविल अपील संख्या 484 -491, 2006 के आदेश संख्या 5 में स्पष्ट कर दिया है की "चूंकि इस राज्य में पंचायत राज व्यवस्था नहीं है, इसीलिए टी.ऐ.सी.का गठन इन अनुसूचित क्षेत्रों के लिए किया गया है। सोचिये इसका मतलब यही हुआ की पंचायत व्यवस्था हो जाने से टी.ऐ.सी.समाप्त की जा सकेगी, यानि पांचवी अनुसूची पर बहुत बड़ा प्रशन चिन्ह लगने वाली है।
पांचवी अनुसूची आदिवासियों के जमीन को किसी भी रूप में गैर आदिवासी एवं सरकार को हस्तांतरण करने की मनाही करती है। किन्तु एक स्वाभाविक बात आज के दिन में देखें तो चुनाव के समय आदिवासी हंडिया-दारू एवं कुछ रुपयों में अपना वोट ख़ुशी-ख़ुशी बेच देते हैं। पेसा कानून जो पंचायत का ही विस्तार है की ग्राम सभा की अनुमति के वगैर गाँव की जमीन अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। किन्तु उपरोक्त वाक्यों से यह सर्वविदित है की हंडिया-दारू एवं कुछेक पैसों में उसी वोट की तरह खाली कागजों में अंगूठा छाप एवं हस्ताक्षर से अपनी जमीन भी बेच दी जाएगी, जैसा की छत्तीसगढ़ और आंद्र प्रदेश में पूंजीपतियों ने गाँव के कुछ लोगों को पकड़कर हजारों हजार एकड़ जमीन ग्राम सभा की अनुमति से हड़प ली है और अपना उद्योग स्थापित किया है।
इस तरह पंचायत व्यवस्था पांचवी अनुसूची पर एक बहुत बड़ा हमला है, इसे हमें समझना होगा, और अपने दुश्मन को पहचानना होगा। पंचायत पैसा की व्यवस्था को लोगों तक पहुचाने की व्यवस्था है, भले ही इसमें आदिवासी हक़ और अधिकारों की बलि ही क्यों न देनी पड़े।
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