अंतराष्ट्रिये आदिवासी दिवस का दर्द

संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र के साथ भारत सरकार भी जुड़ी हुई है, किन्तु भारत सरकार देश के अन्दर आदिवासियों के आस्तित्व को नहीं मानती है। ऐसा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर कहा। हम भारत के आदिवासी अपनी भाषा, संस्कृति, संस्कार के साथ छले गए हैं, और यह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के कार्यकाल से ही शुरू हुआ है, जब उन्होनें पंचशील का सिद्दांत के नाम पर आदिवासियों को धोखा दिया। हमने अपने ऊपर हुए धोके को महसूस कर लिया है और ९ अगस्त वास्तव में अंतराष्ट्रिये दिवस के आलावे देश एवं राज्य सरकारों को एक चेतावनी दिवस भी होगा, की अब हमें आदिवासी के रूप में ही पहचाना जाय न की अनुसूचित जनजाति के रूप में। हमारी पहचान को अब यदि जबरन छिपाया जायेगा तो लोकतंत्र के तंत्र को हिला कर रख देना होगा। पांचवी अनुशुची जो की आदिवासियों का संविधानिक सुरक्षा कवच है, को तोड़ने का प्रयास देश एवं राज्य के नौकरशाहों ने कर दिया है और इसे हमें रोकना होगा। आदिवासी क्षेत्र में बहुमूल्य खनिज सम्पदा को लूटने के लिए आदिवासियों के मान-सम्मान एवं उनके गौरवपूर्ण इतिहास को ख़त्म करने के लिए देश के दिकुओं ने आदिवासी बहुल क्षेत्र में बाहरी आबादी को बड़ी संख्या में घुसपैट कराने का षड़यंत्र रचा, जिसे आज हम हर आदिवासी देख सकते हैं। जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी अपने झारखण्ड में अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। जब हमारे लोग आन्दोलन करते हैं तो लक्ष्मी उराँव जैसी हमारी बहनों को नंगा कर दौड़ाया जाता है। लेकिन भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज और सोनिया गाँधी के आखों से आंसू नहीं गिरते हैं क्योंकि लक्ष्मी उराँव आदिवासी हैं, उसकी इज्जत-आबरू का इस देश में कोई कीमत नहीं है और न ही उन्हें आदिवासी के रूप में गणना किया जाता है। हालाँकि पिछले वर्ष आस्ट्रेलिया ने औपनिवेशिक काल में वहां के आदिवासियों के जमीनों को छिनने और जुर्म शोषण करने के प्रति क्षमा मांग लिया, वहीँ ब्राज़ील ने २ करोड़ ५० लाख एकड़ जंगल को आदिवासियों के लिए सुरक्षित कर दिया है। किन्तु हमारे देश में अभी भी आदिवासियों के आधिकारों के प्रति भारत सरकार का नकारात्मक रवैया बरकरार है। भारत सरकार जानवरों एवं पुरातात्विक जगहों को सुरक्षित करने का कदम उठाती है, किन्तु आदिवासियों की स्थिति उस लायक भी नहीं समझी जाती है। इसलिए सम्पूर्ण विश्व के आदिवासी आज एकजुट हो रहे हैं, और अपनी शर्तों पर विकास के लिए अपनी भाषा, संस्कृति और संस्कार के लिए हमें भी विश्व के आदिवासियों के साथ मिलकर एकता दिखानी है। सरकारों को चेताना है की हम अभी मरे नहीं हैं, अपनी आवाज को सुनने के लिए बाध्य कर देना है और अपने अधिकार जो संयुक्त राष्ट्र संघ के आदिवासी घोषणा पत्र में शामिल है, को लेकर रहना है।

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