संविधानिक दृष्टि में कोल्हान के आदिवासियों के हितों की रक्षा पर समालोचना-३

4 - संविधान के आर्टिकल 19 पारा 5 के अनुसार राज्य सरकार का यह अधिकार है की आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए अन्य जगहों से आये गैर आदिवासियों के साथ जमीन की बंदोबस्ती करने तथा आदिवासियों की जमीन विक्री करने आदि पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए उचित कानून बना सकती है।
विलकिंसन रुल की धारा २७ के अनुसार जमीन विक्री तथा बंधक आदि के लिए आयुक्त की स्वीकृति की व्यवस्था है। इस व्यवस्था को हटाया या संशोधन नहीं किया गया। इसके बगल में सी.एन.टी.एक्ट 1908 लागू कर दिया गया, जिसकी धारा 46 के अनुसार उपायुक्त को जमीन विक्री करने की अनुमति देने का अधिकार दिया गया है। विलकिंसन रूल्स के अनुसार उपायुक्त के माध्यम से आयुक्त की स्वीकृति प्राप्त कर सकने की व्यवस्था है। इस तरह विलकिंसन रुल की अवहेलना की गयी तथा सी.एन.टी.एक्ट के अनुसार ही जमीन विक्री करने की अनुमति दी जा रही है।
इस तरह एक ही पदाधिकारी कोल्हान में जो उपायुक्त है, एक तरफ विलकिंसन रुल के तहत काम करते हैं और दूसरी ओर सी.एन.टी.एक्ट की धारा 46 के अनुसार जमीन विक्री करने की अनुमति भी देते हैं। कोल्हान में कोल्हान अधीक्षक आदिवासियों की जमीन विक्री करने के मामलों की जाँच केम्प कोर्ट में किया करते थे, जाँच प्रतिवेदन सिर्फ मानकी और मुंडा लोगों से मांगते थे, इसके बाद अपनी अनुशंसा के साथ उपायुक्त को स्वीकृति  के लिए अभिलेख भेजते थे। उपायुक्त के माध्यम से आयुक्त की स्वीकृति होने पर ही जमीन विक्री करने की अनुमति थी। पर आज जमीन की लूट को अंजाम देने के लिए विशेष व्यवस्था दिकुओं ने कर दी है। हल्का कर्मचारी के जाँच प्रतिवेदन पर भी आजकल जमीन विक्री देने का कार्य अनुमंडल पदाधिकारी तथा अपर उपायुक्त के न्यायालयों द्वारा अपने-अपने तरीकों से दी जा रही है। रैयत जहाँ सुविधा देखता है वहीँ से अनुमति प्राप्त कर रहा है। आदिवासियों की जमीनों की सुरक्षा के लिए जो जटिलता विलकिंसन रुल द्वारा किया गया था उसका उल्लंगन किया गया और सी.एन.टी.एक्ट की धारा 46 के प्रतिबन्ध को इतना आसान कर दिया गया की एक मजाक हो गया। आज कल तो हद हो रही है की बिना किसी के जाँच प्रतिवेदन पर सिर्फ सर्व साधारण नोटिस के आधार पर ही अनुमति दी जा रही है, जिसके माध्यम से आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी के हाथों में चली जा रही है। कोल्हान के अन्दर आदिवासियों के रैयती जमीन एवं परती जमीन पर गैर कानूनी तरीके से धर्म के नाम पर भवन बनाये जाते हैं और बाद में व्यक्तिगत आमदनी का जरिया गैर आदिवासी लोग बना लेते हैं। आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासियों के हाथों बलात दखल तथा बंधक के रूप में चली गयी है और बड़े-बड़े माकन बने गए हैं और इस प्रकार के अंतरण को भी सरकार मान्यता दे रही है। इस प्रकार संविधान में व्यवस्था रहने के बावजूद भी आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी के पास बहुत अधिक संख्या में शहरों तथा खदानों दे अगल बगल चली जा चुकी है और राज्य सरकार इस पर प्रतिबन्ध लगाने के बदले इस प्रकार कानूनी व्यवस्था में गड़बड़ी लगा रखी है कि जमीन विक्री करने की अनुमति तथा परती जमीन की बंदोबस्ती एक मजाक हो गया या रूपए कमाने का धंधा हो गया। ऐसा लगता है की कानून को ठीक से सुनियोजित साजिश के तहत कमजोर रूप से लागू किया जा रहा है ताकि आदिवासियों की जमीन को लूटा जा सके.

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