शिक्षा एवं आदिवासी समाज

जनता शिक्षित होगी तब ही वह जागरूक होगी और अपने संविधानिक अधिकारों और नागरिक कर्तव्यों को जान सकेगी। झारखण्ड के आंकड़े बताते हैं की बमुश्किल ५० प्रतिशत साक्षरता है। यहाँ शिक्षित और साक्षर के अंतर को समझना जरुरी है। शिक्षित उसे माना जा सकता है, जो समुचित औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद और विभिन्न विचारों को जानने के पश्चात् उनका तर्कपूर्ण विश्लेषण करके स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हो। साक्षर तो उसे भी कहा जा सकता है जो अंगूठा छाप न होकर अपने हस्ताक्षर करने में सक्षम हो, अर्थात ऐसा व्यक्ति भी साक्षर है, जिसको अक्षर ज्ञान है और जो सामान्य चिट्ठी पत्री और अख़बार आदि पड़ सकता हो। किसी भी लोकतान्त्रिक देश में आदर्श लोकतंत्र की स्थापना तभी संभव है, जब वहां का प्रत्येक नागरिक शिक्षित हो अन्यथा मुट्ठी भर शिक्षित लोग अर्द्शिक्षित, मात्र शिक्षित अथवा निरक्षरों का हर प्रकार से शोषण करने का लोभ नहीं रोक पाते हैं। और ऐसे तथाकथित शिक्षित लोगों को भ्रष्टाचार रूपी महामारी का वाहक बनने की सम्भावना बहुत अधिक होती है। आज हमारे राजनितिक नेतागण, प्रशासनिक अधिकारी, डाक्टर, इंजिनियर, कॉर्पोरेट जगत के कर्णधारों में बहुत सारे ऐसे शिक्षित लोग हैं जो भ्रष्टाचार में आकंट डुबे हैं। यदा कदा इनकी धर पकड़ भी होती है, लेकिन उनमे से अधिकांस लोग कोई न कोई जुगत भिड़ा कर कानून की पकड़ से बाहर आराम से जुगाली करते रहते हैं। दूसरी ओर आम नागरिक पाँच वर्षों में एक बार वोट देने के बाद या तो सो जाता है, या फिर भ्रष्टाचार की उफनती धारा में स्वयें भी डुबकियाँ लगाने के फेर में व्यस्त हो जाता है।
ऐसा मानने के कारण हैं कि देश की सत्ता और सुबिधा, संपन्न लोगों ने देश की शिक्षा निति कुछ इस प्रकार की बनाई है की उनकी आनेवाली पीढ़ी सम्पन्नता, सुख सुबिधा की सीढियाँ आराम से चढती जाय। बाकी गरीब, गरीबी रेखा से नीचे के लोग और निम्न मध्य वर्गीय लोगों के बच्चों के लिए घटिया किस्म के सरकारी विद्यालयों में जो पढाई होती है, वही परोसा जाता है, मध्यान भोजन के साथ।
शिक्षा के सन्दर्भ में अभिभावकों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। दुर्भाग्य वश उनमे से अधिकांश अभिभावक स्वये निरक्षर अथवा अर्द्शिक्षित हैं, जो अपने बच्चों को एक बार विद्यालय में भर्ती करा देने के बाद अपने कर्तब्य की इतिश्री मान लेते हैं। ऐसे अनेक अभिभावक हैं, जिन्होंने अपने बच्चों के विद्यालय भवन तक नहीं देखे हैं, बच्चों के शिक्षकों से भेंट मुलाकात, बच्चों की पढाई लिखाई और उनकी अन्य समस्याओं कि चर्चा परिचर्चा की बात तो दूर की रही। इसमें संदेह नहीं की शिक्षकों की भी अपनी समस्याएं हैं, सरकार उन्हें जब-तब गैर शिक्षण कामों में लगा देती है, पहले से बेहतर बेतनमान के बावजूद शिक्षा विभाग के अधिकारी अनेक तरीकों से उनका शोषण करने का मौका ढूंढते रहते हैं।
अभिभावक बच्चों की पढाई लिखाई में गंभीरता पूर्वक चिंतन मनन करें और रूचि लें, उनके शिक्षक शिक्षिकाओं से बच्चों की पढाई लिखाई के सम्बन्ध में विचार गोष्टी करें, महीने दो महीने में अभिभावकों और शिक्षकों की गोष्ठी का आयोजन करें जिसमे प्रत्येक विद्यार्थी के अभिभावक माता-पिता की उपस्थिति सुनिश्चित करें, विद्यार्थी और विद्यालय की समस्याओं पर खुल कर चर्चा करें। तभी शायद हम आदिवासी कुछ उम्मीद कर सकेंगे।

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