विश्व शांति के लिए एक प्रयास "The Day of Reflection, Dialogue and Prayer for peace and justice in the world" का आयोजन "Pilgrims of Truth, Pilgrims of Peace" के तहत दिनांक 27-28 ओक्टुबर 2011 को इटली के असीसी में किया गया। विश्व के शीर्षस्थ धर्म गुरुओं को पोप वेंडिक्ट १६ के द्वारा आमंत्रित किया गया था ताकि विश्व में व्याप्त अशांति एवं वैमनष्य को धार्मिक गुरुओं के नेतृत्व में रोका एवं समाप्त किया जा सके और शांति एवं अमन चैन बहाल किया जा सके। यह आयोजन इटली के असीसी में हुआ। इस आयोजन में मुझे मुकेश बिरुआ, उपाध्यक्ष अखिल भारतीय आदिवासी महासभा एवं पूर्व महासचिव आदिवासी हो समाज महासभा को आदिवासी आस्था एवं विश्वास(सरना) का नेतृत्व करने का मौका मिला। पहली बार विश्व पटल पर आदिवासी विश्वास सरना के लिए हिन्दू, सिख, जैन, जोरो, और बहाई के साथ अलग से डेस्क दिया गया। तक़रीबन ३०० धर्म गुरुओं के महासम्मेलन में मुझे भी पोप वेंडिक्ट १६ सहित चुनिन्दा लोगों के साथ स्टेज साझा करने का मौका मिला। चूँकि पहली बार ऐसे सम्मेलनों में किसी आदिवासी को आमंत्रित किया गया था इसीलिए भी यह आयोजन महत्वपूर्ण था। विश्व के धर्मगुरुओं द्वारा "सरना" को भी अलग रूप से पहचान दिया गया।
२८ ओक्टुबर को पोप वेंडिक्ट १६ के साथ वार्ता करने का मौका दिया गया। उनसे वार्ता में मैंने उन्हें कहा की मैं आदिवासी हूँ, भारत से आया हूँ। हम आदिवासी प्रकृति के उपासक हैं। हम अपने भगवान को सिंग्वोंगा कहते हैं और जोहार से एक दुसरे को अभिनन्दन करते हैं। मैंने यह कह कर उन्हें जोहार कहा तो उन्होंने भी मुझे जोहार कहा। मैंने कहा की विश्व शांति के लिए हमें प्रकृति के पास पहुंचना होगा. प्रकृति ही हमें शांति दे सकती है. और यदि प्रकृति के भावना के साथ खिलवाड़ जारी रहा तो इस पृथ्वी पर ज्यादा दिन नहीं रहा जा सकता है। इसके लिए पूरे विश्व को आदिवासियों के हितों का ख्याल रखना सबसे ज्यादा जरुरी है, क्योंकि आदिवासी प्रकृति के सबसे ज्यादा नजदीक हैं, प्रकृति को समझते हैं, और प्रकृति की उपासना करते हैं. विश्व शांति के लिए भी हमें प्रकृति के नियमों के साथ चलना होगा, आदिवासियों को, उनके ज्ञान को सम्मान देना होगा, अन्यथा विश्व शांति की उम्मीद बेमानी होगी। उन्होंने आश्चर्य एवं सम्मान के साथ मुझे देखते हुए धन्यवाद कहा और अपने काम को आगे बढ़ाने की बात कही।
विभिन्न धर्म गुरुओं से चर्चा में मैंने आदिवासी संस्कृति एवं विज्ञान के बारे में बात की। मैंने उन्हें कहा की शिक्षा एवं साक्षरता की परिभाषा के अस्पष्ट होने के कारण आदिवासी विश्व के सामान्य समाजों से अलग कर दिए गए हैं। मैंने उन्हें उदहारण देते हुए बताया की हमारे गाँव में गाय, बैल, बकरी चराने वाला लड़का होता है, उसे जंगल में चिड़िया के चहचहाने का, हवा के बहने का, पानी के चलने का, फल-फूल के होने का मतलब की जानकारी है, ज्ञान है। प्रकृति के विभिन्न गतिविधियों को वह आदिवासी बेहतर समझता हैं और प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता हैं। मैंने पूछा की क्या यह ज्ञान किसी पी०एच०डी० या डोक्टोरेट डिग्री वाले को है? उन्होंने कहा नहीं। क्या आपके पास ऐसी जानकारी है? उन्होंने कहा नहीं। क्या आपके धर्मग्रंथों में इसकी जानकारी है? उन्होंने कहा नहीं। इन बातों पर विभिन्न धर्म गुरुओं ने सम्मान के साथ कहा की ये सब बातें तो हमारे धर्म ग्रंथों में भी नहीं है। तब मैंने पूछा कि क्या सिर्फ पढ़ा लिखा नहीं होने के कारण उस आदिवासी के ज्ञान को नाकारा जा सकता है? सबने कहा नहीं. तब मैंने कहा कि यही तो सरना है. प्रकृति को मानना, प्रकृति के अनुकूल चलना, और प्रकृति की उपासना करना जिसमें सार है वही सरना है। यह तो आश्चर्य कि बात है कि हम आदिवासियों के पास जो ज्ञान है उसे हमारे अनपढ़ होने का बात कह कर विश्व समाज नकार देता है। हमारे आस्था को मूर्ति की पूजा नहीं करने के कारण पहचान से मना किया जाता रहा है। तो क्या हमारे पास जो ज्ञान है, वह आपके पास है ? हमारे धर्म के अनुष्ठान क्या आपके पास हैं? उन्होंने कहा की आपको अपनी बातें किताबों में अंकित करनी चाहिए ताकि धर्मग्रन्थ बने. इस पर मैंने तर्क देते हुए कहा कि आपके धर्म ग्रन्थ १०० पेज या ५०० पेज या १००० पेज के हो सकते हैं पर हमारा धर्मग्रन्थ तो ये धरती है, इस छोर से उस छोर तक. और इस धरती में इस पृथ्वी में कहाँ कहाँ पूजा स्थल है, धर्म स्थल हैं, पवित्र स्थल हैं, वह हमारे दियुरी, नायके, और पाहन जानते हैं. पन्नों में इतने बड़े धर्मग्रन्थ को शायद हम समेट नहीं सकते.
शाम को जब मैं अपने होटल में वापस आकर आराम करते हुए इन कार्यकलापों का आत्मविश्लेषण किया तो मुझे अन्दर ही अन्दर एक आत्मसम्मान का एहसास हो रहा था. और मैंने dairy में लिखा की आज हम आदिवासी प्रकृति विज्ञान के मामले में विश्व समाज से कहीं आगे है। कृत्रिम दुनिया के लोगों ने धर्म और समाज का ऐसा जाल बुन दिया है की आज यह पता लगाना मुश्किल हो रहा है की शुरुआत कहाँ है और अंत कहाँ? जिस कारण विश्व शांति के प्रयास के नाम पर ही सही आत्मविश्लेषण के लिए तो इन लोगों को प्रेरित तो कर ही दिया है। इस प्रयास के लिए पोप वेंडिक्ट १६ धन्यवाद के पात्र हैं। आश्चर्य है की विश्व मंच ने आदिवासी विश्वास सरना को मंच दिया और पहचान भी किया। यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है की भारत सरना को पहचान नहीं दे पा रही है।२८ ओक्टुबर को पोप वेंडिक्ट १६ के साथ वार्ता करने का मौका दिया गया। उनसे वार्ता में मैंने उन्हें कहा की मैं आदिवासी हूँ, भारत से आया हूँ। हम आदिवासी प्रकृति के उपासक हैं। हम अपने भगवान को सिंग्वोंगा कहते हैं और जोहार से एक दुसरे को अभिनन्दन करते हैं। मैंने यह कह कर उन्हें जोहार कहा तो उन्होंने भी मुझे जोहार कहा। मैंने कहा की विश्व शांति के लिए हमें प्रकृति के पास पहुंचना होगा. प्रकृति ही हमें शांति दे सकती है. और यदि प्रकृति के भावना के साथ खिलवाड़ जारी रहा तो इस पृथ्वी पर ज्यादा दिन नहीं रहा जा सकता है। इसके लिए पूरे विश्व को आदिवासियों के हितों का ख्याल रखना सबसे ज्यादा जरुरी है, क्योंकि आदिवासी प्रकृति के सबसे ज्यादा नजदीक हैं, प्रकृति को समझते हैं, और प्रकृति की उपासना करते हैं. विश्व शांति के लिए भी हमें प्रकृति के नियमों के साथ चलना होगा, आदिवासियों को, उनके ज्ञान को सम्मान देना होगा, अन्यथा विश्व शांति की उम्मीद बेमानी होगी। उन्होंने आश्चर्य एवं सम्मान के साथ मुझे देखते हुए धन्यवाद कहा और अपने काम को आगे बढ़ाने की बात कही।
विभिन्न धर्म गुरुओं से चर्चा में मैंने आदिवासी संस्कृति एवं विज्ञान के बारे में बात की। मैंने उन्हें कहा की शिक्षा एवं साक्षरता की परिभाषा के अस्पष्ट होने के कारण आदिवासी विश्व के सामान्य समाजों से अलग कर दिए गए हैं। मैंने उन्हें उदहारण देते हुए बताया की हमारे गाँव में गाय, बैल, बकरी चराने वाला लड़का होता है, उसे जंगल में चिड़िया के चहचहाने का, हवा के बहने का, पानी के चलने का, फल-फूल के होने का मतलब की जानकारी है, ज्ञान है। प्रकृति के विभिन्न गतिविधियों को वह आदिवासी बेहतर समझता हैं और प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता हैं। मैंने पूछा की क्या यह ज्ञान किसी पी०एच०डी० या डोक्टोरेट डिग्री वाले को है? उन्होंने कहा नहीं। क्या आपके पास ऐसी जानकारी है? उन्होंने कहा नहीं। क्या आपके धर्मग्रंथों में इसकी जानकारी है? उन्होंने कहा नहीं। इन बातों पर विभिन्न धर्म गुरुओं ने सम्मान के साथ कहा की ये सब बातें तो हमारे धर्म ग्रंथों में भी नहीं है। तब मैंने पूछा कि क्या सिर्फ पढ़ा लिखा नहीं होने के कारण उस आदिवासी के ज्ञान को नाकारा जा सकता है? सबने कहा नहीं. तब मैंने कहा कि यही तो सरना है. प्रकृति को मानना, प्रकृति के अनुकूल चलना, और प्रकृति की उपासना करना जिसमें सार है वही सरना है। यह तो आश्चर्य कि बात है कि हम आदिवासियों के पास जो ज्ञान है उसे हमारे अनपढ़ होने का बात कह कर विश्व समाज नकार देता है। हमारे आस्था को मूर्ति की पूजा नहीं करने के कारण पहचान से मना किया जाता रहा है। तो क्या हमारे पास जो ज्ञान है, वह आपके पास है ? हमारे धर्म के अनुष्ठान क्या आपके पास हैं? उन्होंने कहा की आपको अपनी बातें किताबों में अंकित करनी चाहिए ताकि धर्मग्रन्थ बने. इस पर मैंने तर्क देते हुए कहा कि आपके धर्म ग्रन्थ १०० पेज या ५०० पेज या १००० पेज के हो सकते हैं पर हमारा धर्मग्रन्थ तो ये धरती है, इस छोर से उस छोर तक. और इस धरती में इस पृथ्वी में कहाँ कहाँ पूजा स्थल है, धर्म स्थल हैं, पवित्र स्थल हैं, वह हमारे दियुरी, नायके, और पाहन जानते हैं. पन्नों में इतने बड़े धर्मग्रन्थ को शायद हम समेट नहीं सकते.
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