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पृथ्वी के उत्पति से पूर्व, उत्पति के समय, फिर प्रकृति का श्रृजन, जीवों की उत्पति आदि के बाद सिन्ह्वोंगा के सबसे उत्कृष्ट रचना मानव ने आदि संस्कृति एवं अध्यात्मिक ज्ञान पर आधारित सामाजिक रीती-रिवाज के दैविक सिद्दांत के तहत जीवन को आगे बढाया। यही पद्दति दुपुब दिशुम दस्तूर कहलाया। यानि आपस में बैठकर लिया जाने वाला निर्णय। पहले मानव भोजन, भूमि, कपडा, और आवास जैसी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोग संगठित रहने लगे। आदिकाल में हमारी आवश्यकताएं भोजन और सुरक्षा तक ही सिमित थी और हम लोग उन सिमित आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने ही समाज में एक दुसरे के पारस्परिक सहयोग पर निर्भर रहते थे। लेकिन जब से हमारा वास्ता बाहरी समाजों के साथ पड़ा है, तब से हमारे सामाजिक अस्तित्व को अनेक प्रकार की चुनौतियों और हस्तक्षेपों का सामना करना पड़ रहा है। जिसके कारण आज हम आर्थिक रूप से विपन्न हुए और सांस्कृतिक दृष्टि से भी हमारा शोषण हुआ।
शोधकर्ता श्री मोरा हो देओगम के अनुसार दुपुब दिशुम दस्तूर का कालचक्र ५८००० वर्ष का होता है आदिवासी समुदाय में। हो समाज के अनुसार इतने वर्षों में कुल पांच युग होंगे/होते हैं। पहला युग महायुग था जिसमे आदिवासी समुदाय दुपुब दस्तूर(पारंपरिक ग्राम सभा) के तहत अपनी सामाजिक, धार्मिक, एवं सांस्कृतिक एकता में थे। इस युग में धर्म(अच्छे कर्म) ९५ % एवं पाप(बुरे कर्म) सिर्फ ५% था। यह ऋषि मुनियों का समय था। यह युग १८००० वर्षों तक चला। उसके बाद सतयुग आया। इसमें धर्म ८०% रह गया एवं पाप २०% हो गया. इस समय भी आदिवासियों का ही इस पृथ्वी पर राज था. शुरू से ही पृथ्वी पर आदिवासियों का राज रहा है, लेकिन कालांतर में आदिवासियों के प्राकृतिक ज्ञान, आदिवासियों का प्रकृति को मानना, प्रकृति के अनुकूल चलना एवं प्रकृति की उपासना करने की संस्कृति को समाज से भटक कर प्रकृति के अनुशासन के विपरीत चलने वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत सोच को और उस सोच पर चलने वालों ने उसे धर्म का नाम देकर दुनिया में धर्म के विचारधारा की शुरुआत की. इसी समय नर्सिंग अवतार की परिकल्पना हिन्दुओं ने की है। यह युग १२००० वर्षों तक रहा। तीसरा युग त्रेता युग था। यह युग भी १२००० वर्षों तक चला। इसमें धर्म ६५% रह गया एवं पाप ३५% हो गया । इसी युग में राम रावण की लड़ाई बताई गई है। चौथा युग द्वापर युग कहलाया। इसी युग में महाभारत की लड़ाई बताई गई। इसमें धर्म ६०% रह गया और पाप ४०% तक पहुँच गया। इस युग में भी आदिवासियों के दुपुब दस्तूर के अनुकूल चलने वालों की संख्या ज्यादा रही । इसमें भी कोई जाति प्रथा एवं धर्म का उदय नहीं हुआ था। यह युग भी १२००० वर्ष चला। ईशा से ४००० वर्ष तक धर्म समाप्ति की ओर गया और दोगला संस्कृति के पनपने से बमुश्किल ५% ही धर्म(अच्छा कर्म) रह गया और पाप का बोलबाला ९५% तक पहुँच गया। अपने कुकर्मों से लोगों में इतना डर पैदा हुआ की जैन, बौद, इसाई , मुस्लिम, हिन्दू न जाने कितने कितने धर्म की उत्पति इस युग में हुई। यही युग कलियुग कहलाया। इसके पहले इस तरह का डर नहीं देखा गया और लोग अपने-अपने नीति सिद्दांतों पर चलने वालों को एक पहचान दिलाने के लिए धर्मों को नाम देने का प्रचालन शुरू हुआ। वास्तव में धर्म की उत्पति डर से हुई है और यह देखना जरुरी है की डर किनको होता है। इसी पाप की उत्पति है धर्म, जो आज दुनिया में प्रकृति को छोड़ कर अपने अपने कृत्रिम रास्ते चुने और बनाए और हालत ऐसे हो गए कि आज हम इस कारण से सुनामी, भूकंप, चक्रवात, आंधी, तूफान, आग, बाद, परमाणु विस्फोट आदि न जाने कितने ही त्रासदियों से रूबरू हुए अपनी जिंदगी दांव पर लगा चुके हैं। जैन और बौद इषा से पहले आय। इषा का जन्म ००-०५ इश्वी माना जाता है, मुस्लिम का उदय ५६९ वर्ष में एवं प्रथम शंकराचार्य का उदय ८०६ इश्वी में हुआ। अब प्रश्न उठता है कि जब ईशा ००-०५ इश्वी में आए, मुस्लिम ५६९ इश्वी में और हिन्दू विचारधारा ८०६ में आया तो ईशा पूर्व ४००० वर्ष पहले कि घटना किनकी थी???? आधुनिक विज्ञान के पास करोड़ों वर्ष पहले की चीजों को Carbon 14 पद्दति से age निकलने की विधि है. विज्ञान तक ने आज जिन धर्म एवं भगवानों को दुनिया मानती आ रही है, उन्हें इसीलिए काल्पनिक मानती है चूँकि उस समय की कोई भी वस्तु, विज्ञान को नहीं मिली है, जिसका सत्यापन Carbon १४ पद्दति से हो पाई हो.
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