सेवा में,
श्री मनमोहन सिंह जी,
प्रधान मंत्री सह अध्यक्ष राष्ट्रीय योजना आयोग नई देल्ली।
श्री मनमोहन सिंह जी,
प्रधान मंत्री सह अध्यक्ष राष्ट्रीय योजना आयोग नई देल्ली।
विषय: सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना के अंतर्गत ईचा डैम के निर्माण पर आपत्ति के सम्बन्ध में।
आदरणीय श्रीमान,
उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में यह सादर निवेदन है :
१- कि दिनांक २१ अप्रैल २००७ को माननीय राष्ट्रपति भारत सरकार ने गजट अधिसूचना द्वारा झारखण्ड राज्य के पूर्ण एवं आंशिक रूप से १५ जिलों को भारत के संविधान कि पांचवी अनुसूची के पैरा ६ कि उप पैरा २ द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए अनुसूचित क्षेत्र गठन अधिसूचना जारी किये हैं तथा जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार ने दिनांक ११ मई २००७ D.O no 11023/07/2000-TDR/C & LM II के साथ उक्त अनुसूचित क्षेत्र का गजट अधिसूचना को संलगन करते हुए तत्कालीन मुख्य सचिव श्री A.K.Chung, झारखण्ड सरकार को निर्देश दिया था कि इन क्षेत्र में आदिवासियों को पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के आधार पर सुरक्षा देना है, पर झारखण्ड सरकार उपरोक्त सुरक्षा देने में असफल रही है।(परिशिष्ट संलगन)
भारत के संविधान में निहित अनुच्छेद २४४(१) के अंतर्गत पांचवी अनुसूची के तहत इस क्षेत्र में प्रशासन, नियंत्रण, कल्याण, एवं उन्नति तथा शांति एवं सुशासन का प्रावधान है। इसके अलावे ईचा डैम के इस क्षेत्र में विलकिंसन रुल, पेसा कानून, CNT Act भी है। फिर भी झारखण्ड सरकार ने ५६वे राष्ट्रीय विकास परिषद् कि बैठक में सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना को केन्द्रीय योजना के रूप में अगले ३ वर्षों में पूरा कराने के लिए आवेदित करने से ईचा डैम ड़ूब क्षेत्र की जनता को गहरा अघात पहुँचाया है और भूमि अधिग्रहण कि प्रक्रिया उपरोक्त कानूनों के प्रावधानों का सीधा उल्लंघन है।
२-कि ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि उक्त परियोजना के सम्बन्ध में तत्कालीन बिहार विधानसभा कि TAC से अथवा झारखण्ड विधानसभा कि TAC से कोई सहमती ली गई है। उक्त परियोजना के लिए TAC से सहमती नहीं लेना संविधान कि पांचवी अनुसूची का स्पष्ट उल्लंघन है।
३- कि श्रीमान उक्त परियोजना के संक्षिप्त इतिहास से अवश्य परिचित है, तथापि अत्यंत विनम्रता पूर्वक श्रीमान का ध्यान उक्त परियोजना से सम्बंधित ऐसे मानवीय पह्लुयों और स्थानीय आदिवासियों के संविधानिक अधिकारों कि ओर आकृष्ट करना प्रासंगिक होगा जिन पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कभी विचार नहीं किया गया था, जो इस प्रकार है: (क) चूँकि सरकार आदिवासियों(जनतातियों)कि स्थावर(अचल)सम्पति कि अभिरक्षक और न्यासी है, अत: तत्कालीन सरकार, आयुक्त, उपायुक्त आदि उच्च अधिकारीयों को यह ज्ञान होना चाहिए था कि आदिवासियों और विशेष रूप से स्थानीय हो आदिवासियों को उनके ऐसे आवासीय क्षेत्रों जहाँ पर उनके अदिंग, ससन, और देशाउली, जयरा, नागे सूंड, पौणि, अखाडा(पूजा स्थल), गोवां वोंगा, कोलोम, मरंग वोंगा, जात्रा वोंगा अवस्थित है, जो उनकी संस्कृति के मूल अधर हैं, विस्थापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसा करने से संविधान के अनुच्छेद २९(१) के अधीन उनके मूल अधिकारों का हनन होता है। CNT Act १९०८ कि धारा ५०(७) के अनुसार holding के किसी भूभाग पर अवस्थित उपरोक्त पूजा स्थल का अधिग्रहण करने का अधिकार किसी भी उपायुक्त को नहीं है। ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ उक्त अधिनियम द्वारा इंगित धार्मिक पूजा स्थल न हो।
(ख) तत्कालीन सरकार द्वारा जानबूझ कर अथवा अनजाने में कि गई उपरोक्त उप पैरा में उल्लेखित भूल को सुधारने के लिए अब भी प्रयाप्त समय है क्योंकि परियोजना में व्यय हो चुकी राशि कि तुलना में मानव जीवन नि:संदेह अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान है, जिसकी क्षति किसी भी प्रकार के लिए अपूर्णीय होगी। राष्ट्रिय जनजाति निति के प्रारूप में इस तथ्य कि पुष्टि कि गई है कि विस्थापन के एवज में नकद राशि विस्थापित आदिवासियों कि जीवन पद्दति और प्रकृति के मद्देनजर वास्तव में झेली जाने वाली मुसीबतों का भुगतान किसी भी हालत में नहीं कर सकती है।
४- कि सन १९८२ में तत्कालीन बिहार सरकार के मुख्यमंत्री जगन्नात मिश्र के शासन काल में सरकार ने उक्त परियोजना का शांतिपूर्ण रूप से विरोध करने वालों कि अनसुनी करके आन्दोलन पर उतर आने के लिए उकसाया था और शांति पूर्ण समझौता करने के बजाय सरकार ने दमन और आतंक का अलोकतांत्रिक रास्ता अपनाया और उक्त परियोजना का विरोध करने वाली जनता में दहशत का वातावरण सुनिश्चित करने के लिए पुलिस को बेलगाम छोड़ दिया था। जिसके परिणाम स्वरुप बर्तमान पश्चिम सिंहभूम के मंझारी पुलिस थाना अंतर्गत इलिगाडा निवासी, भारतीय सेना के सेवानिवृत नायक सूबेदार राम नारायण कलुन्दिया को जिन्हें सन १९६५ के युद्ध में असाधारण शौर्य के लिए महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था, उनकी घर जाकर पहले तो उनकी जांघ में गोली मार कर जख्मी किया गया, फिर पुलिस कि गाड़ी में उठाकर डाल दिया गया और संभवत: उन्हें रस्ते भर भयंकर शारीरिक यंत्रणा दी गई और उनके गुप्तांग भी काटे गए क्योंकि इलिगाडा ग्राम से चाईबासा जानेवाली सड़क पर पड़ने वाले गाँव के ग्रामीण ने पुलिस कि उक्त गाड़ी से गंगाराम कलुन्दिया कि मर्मभेदी चीखें सुनी थी। ४ अप्रैल १९८२ को गंगाराम कलुन्दिया का जख्मों से बुरी तरह विकृत मृत शारीर उनके गाँव वालों के हवाले किया गया था तब शरीर पर संगीन के अनेक निशान थे और उनके गुप्तांग कटे हुए पाय गए थे। इसके अलावे उनके दाहसंस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ चुनते समय राख से चर्रों कि गोलियां मिली थी। उपरोक्त तथ्यों कि पुष्टि तत्कालीन बिहार राज्य कि जनजाति कल्याण आयुक्त श्रीमती सुनीला बसंत कि संलग्न रिपोर्ट कि प्रतिलिपि से होती है। किसी व्यक्ति कि हत्या करके इस प्रकार विकृत करने के पीछे निश्चय ही एकमात्र मंशा आतंक फैलाना था। इस प्रकार दहशत और दबाव का माहौल पैदा करके सरकार ने विस्थापित होने वाले ग्रामीणों पर भूमि के बदले नकद राशि लेने के लिए भयंकर आतंककारी मानसिक दबाव डाला था। बहरलाल हजारों ग्रामीणों ने अपनी भूमि के बदले में नकद राशि लेने से इंकार कर दिया और बाकि जिन लोगों ने भय के कारण विवश होकर नकद राशि स्वीकार कि, उनमे से कुछ एक व्यक्तियों के अलावे शेष गरीब सीधे साधे अशिक्षित ग्रामीण आदिवासियों को उनके लिए अकल्पनीय बड़ी-बड़ी राशियों ने हर प्रकार से बर्बाद कर दिया है। एक लोकतान्त्रिक, कल्याणकारी तथा उत्तरदायी सरकार का आचरण एक कुटिल व्यापारी अथवा महाजन कि तरह को कतई अपेक्षित नहीं है जबकि विशेष रूप से आदिवासियों के सन्दर्भ में सरकार कि संविधानिक भूमिका एक अभिरक्षक और न्यासी कि है।
अंतत: सविनय निवेदन है कि उपरोक्त तथा अन्य प्रासंगिक तथ्यों एवं बिन्दुओं पर संविधानिक तथा मानवीय दृष्टिकोण से सहानुभूति पूर्वक न्यायसम्मत पुनर्विचार किया जाय और सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना जैसी बड़ी परियोजनाओं के बजाय लघु परियोजनाओं का निर्माण किया जाय, जिससे एक ओर बहुत बड़े पैमाने पर विस्थापन जनित अपूर्णीय मानव त्रासदी से बचा जा सके और दूसरी ओर कृषि के लिए सिंचाई तथा उद्योग धंधो तथा घरेलु उपयोग के लिए जल उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त बर्तमान तथा भविष्य के अंतराष्ट्रीय सामरिक परिपेक्ष्य में आबादी वाले तथा बड़े औद्दोगिक प्रतिष्ठानों के निकटवर्ती क्षेत्रों में सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजनाओं जैसी विशाल बांध परियोजनाओं आदि का निर्माण कहाँ तक दूरदर्शिता पूर्ण है, इस पर भी कृपापूर्वक विचार किया जाना कालोचित होगा। इसी के निमित हम आपसे विनती करते हैं कि उक्त परियोजना को १२वे पञ्च वर्षीय योजना में किसी भी सूरत में शामिल न किया जाय और हम आदिवासियों को अपने जमीन से विश्थापित न किया जाय।
सादर,
भवदीय
१-दासकन कुदादा
अध्यक्ष कोल्हान पोडाहत विस्थापन प्रतिरोधी आदिवासी जन संगठन
२- मुकेश बिरुआ
उपाध्यक्ष, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा
(उपरोक्त के साथ कुल ८ बिंदु में चिट्टी लिखी गई है बाकि नहीं दे पा रहा हूँ)
प्रतिलिपि: राष्ट्रपति, राज्यपाल, Montek sigh Ahluwalia, B.K Chaturvidi(member yojana ayog), Rahul gandhi, CM Jharkhand, जनजाति आयोग आदि।
आदरणीय श्रीमान,
उपरोक्त विषय के सन्दर्भ में यह सादर निवेदन है :
१- कि दिनांक २१ अप्रैल २००७ को माननीय राष्ट्रपति भारत सरकार ने गजट अधिसूचना द्वारा झारखण्ड राज्य के पूर्ण एवं आंशिक रूप से १५ जिलों को भारत के संविधान कि पांचवी अनुसूची के पैरा ६ कि उप पैरा २ द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए अनुसूचित क्षेत्र गठन अधिसूचना जारी किये हैं तथा जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार ने दिनांक ११ मई २००७ D.O no 11023/07/2000-TDR/C & LM II के साथ उक्त अनुसूचित क्षेत्र का गजट अधिसूचना को संलगन करते हुए तत्कालीन मुख्य सचिव श्री A.K.Chung, झारखण्ड सरकार को निर्देश दिया था कि इन क्षेत्र में आदिवासियों को पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के आधार पर सुरक्षा देना है, पर झारखण्ड सरकार उपरोक्त सुरक्षा देने में असफल रही है।(परिशिष्ट संलगन)
भारत के संविधान में निहित अनुच्छेद २४४(१) के अंतर्गत पांचवी अनुसूची के तहत इस क्षेत्र में प्रशासन, नियंत्रण, कल्याण, एवं उन्नति तथा शांति एवं सुशासन का प्रावधान है। इसके अलावे ईचा डैम के इस क्षेत्र में विलकिंसन रुल, पेसा कानून, CNT Act भी है। फिर भी झारखण्ड सरकार ने ५६वे राष्ट्रीय विकास परिषद् कि बैठक में सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना को केन्द्रीय योजना के रूप में अगले ३ वर्षों में पूरा कराने के लिए आवेदित करने से ईचा डैम ड़ूब क्षेत्र की जनता को गहरा अघात पहुँचाया है और भूमि अधिग्रहण कि प्रक्रिया उपरोक्त कानूनों के प्रावधानों का सीधा उल्लंघन है।
२-कि ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि उक्त परियोजना के सम्बन्ध में तत्कालीन बिहार विधानसभा कि TAC से अथवा झारखण्ड विधानसभा कि TAC से कोई सहमती ली गई है। उक्त परियोजना के लिए TAC से सहमती नहीं लेना संविधान कि पांचवी अनुसूची का स्पष्ट उल्लंघन है।
३- कि श्रीमान उक्त परियोजना के संक्षिप्त इतिहास से अवश्य परिचित है, तथापि अत्यंत विनम्रता पूर्वक श्रीमान का ध्यान उक्त परियोजना से सम्बंधित ऐसे मानवीय पह्लुयों और स्थानीय आदिवासियों के संविधानिक अधिकारों कि ओर आकृष्ट करना प्रासंगिक होगा जिन पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कभी विचार नहीं किया गया था, जो इस प्रकार है: (क) चूँकि सरकार आदिवासियों(जनतातियों)कि स्थावर(अचल)सम्पति कि अभिरक्षक और न्यासी है, अत: तत्कालीन सरकार, आयुक्त, उपायुक्त आदि उच्च अधिकारीयों को यह ज्ञान होना चाहिए था कि आदिवासियों और विशेष रूप से स्थानीय हो आदिवासियों को उनके ऐसे आवासीय क्षेत्रों जहाँ पर उनके अदिंग, ससन, और देशाउली, जयरा, नागे सूंड, पौणि, अखाडा(पूजा स्थल), गोवां वोंगा, कोलोम, मरंग वोंगा, जात्रा वोंगा अवस्थित है, जो उनकी संस्कृति के मूल अधर हैं, विस्थापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसा करने से संविधान के अनुच्छेद २९(१) के अधीन उनके मूल अधिकारों का हनन होता है। CNT Act १९०८ कि धारा ५०(७) के अनुसार holding के किसी भूभाग पर अवस्थित उपरोक्त पूजा स्थल का अधिग्रहण करने का अधिकार किसी भी उपायुक्त को नहीं है। ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ उक्त अधिनियम द्वारा इंगित धार्मिक पूजा स्थल न हो।
(ख) तत्कालीन सरकार द्वारा जानबूझ कर अथवा अनजाने में कि गई उपरोक्त उप पैरा में उल्लेखित भूल को सुधारने के लिए अब भी प्रयाप्त समय है क्योंकि परियोजना में व्यय हो चुकी राशि कि तुलना में मानव जीवन नि:संदेह अधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान है, जिसकी क्षति किसी भी प्रकार के लिए अपूर्णीय होगी। राष्ट्रिय जनजाति निति के प्रारूप में इस तथ्य कि पुष्टि कि गई है कि विस्थापन के एवज में नकद राशि विस्थापित आदिवासियों कि जीवन पद्दति और प्रकृति के मद्देनजर वास्तव में झेली जाने वाली मुसीबतों का भुगतान किसी भी हालत में नहीं कर सकती है।
४- कि सन १९८२ में तत्कालीन बिहार सरकार के मुख्यमंत्री जगन्नात मिश्र के शासन काल में सरकार ने उक्त परियोजना का शांतिपूर्ण रूप से विरोध करने वालों कि अनसुनी करके आन्दोलन पर उतर आने के लिए उकसाया था और शांति पूर्ण समझौता करने के बजाय सरकार ने दमन और आतंक का अलोकतांत्रिक रास्ता अपनाया और उक्त परियोजना का विरोध करने वाली जनता में दहशत का वातावरण सुनिश्चित करने के लिए पुलिस को बेलगाम छोड़ दिया था। जिसके परिणाम स्वरुप बर्तमान पश्चिम सिंहभूम के मंझारी पुलिस थाना अंतर्गत इलिगाडा निवासी, भारतीय सेना के सेवानिवृत नायक सूबेदार राम नारायण कलुन्दिया को जिन्हें सन १९६५ के युद्ध में असाधारण शौर्य के लिए महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया था, उनकी घर जाकर पहले तो उनकी जांघ में गोली मार कर जख्मी किया गया, फिर पुलिस कि गाड़ी में उठाकर डाल दिया गया और संभवत: उन्हें रस्ते भर भयंकर शारीरिक यंत्रणा दी गई और उनके गुप्तांग भी काटे गए क्योंकि इलिगाडा ग्राम से चाईबासा जानेवाली सड़क पर पड़ने वाले गाँव के ग्रामीण ने पुलिस कि उक्त गाड़ी से गंगाराम कलुन्दिया कि मर्मभेदी चीखें सुनी थी। ४ अप्रैल १९८२ को गंगाराम कलुन्दिया का जख्मों से बुरी तरह विकृत मृत शारीर उनके गाँव वालों के हवाले किया गया था तब शरीर पर संगीन के अनेक निशान थे और उनके गुप्तांग कटे हुए पाय गए थे। इसके अलावे उनके दाहसंस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ चुनते समय राख से चर्रों कि गोलियां मिली थी। उपरोक्त तथ्यों कि पुष्टि तत्कालीन बिहार राज्य कि जनजाति कल्याण आयुक्त श्रीमती सुनीला बसंत कि संलग्न रिपोर्ट कि प्रतिलिपि से होती है। किसी व्यक्ति कि हत्या करके इस प्रकार विकृत करने के पीछे निश्चय ही एकमात्र मंशा आतंक फैलाना था। इस प्रकार दहशत और दबाव का माहौल पैदा करके सरकार ने विस्थापित होने वाले ग्रामीणों पर भूमि के बदले नकद राशि लेने के लिए भयंकर आतंककारी मानसिक दबाव डाला था। बहरलाल हजारों ग्रामीणों ने अपनी भूमि के बदले में नकद राशि लेने से इंकार कर दिया और बाकि जिन लोगों ने भय के कारण विवश होकर नकद राशि स्वीकार कि, उनमे से कुछ एक व्यक्तियों के अलावे शेष गरीब सीधे साधे अशिक्षित ग्रामीण आदिवासियों को उनके लिए अकल्पनीय बड़ी-बड़ी राशियों ने हर प्रकार से बर्बाद कर दिया है। एक लोकतान्त्रिक, कल्याणकारी तथा उत्तरदायी सरकार का आचरण एक कुटिल व्यापारी अथवा महाजन कि तरह को कतई अपेक्षित नहीं है जबकि विशेष रूप से आदिवासियों के सन्दर्भ में सरकार कि संविधानिक भूमिका एक अभिरक्षक और न्यासी कि है।
अंतत: सविनय निवेदन है कि उपरोक्त तथा अन्य प्रासंगिक तथ्यों एवं बिन्दुओं पर संविधानिक तथा मानवीय दृष्टिकोण से सहानुभूति पूर्वक न्यायसम्मत पुनर्विचार किया जाय और सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना जैसी बड़ी परियोजनाओं के बजाय लघु परियोजनाओं का निर्माण किया जाय, जिससे एक ओर बहुत बड़े पैमाने पर विस्थापन जनित अपूर्णीय मानव त्रासदी से बचा जा सके और दूसरी ओर कृषि के लिए सिंचाई तथा उद्योग धंधो तथा घरेलु उपयोग के लिए जल उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त बर्तमान तथा भविष्य के अंतराष्ट्रीय सामरिक परिपेक्ष्य में आबादी वाले तथा बड़े औद्दोगिक प्रतिष्ठानों के निकटवर्ती क्षेत्रों में सुवर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजनाओं जैसी विशाल बांध परियोजनाओं आदि का निर्माण कहाँ तक दूरदर्शिता पूर्ण है, इस पर भी कृपापूर्वक विचार किया जाना कालोचित होगा। इसी के निमित हम आपसे विनती करते हैं कि उक्त परियोजना को १२वे पञ्च वर्षीय योजना में किसी भी सूरत में शामिल न किया जाय और हम आदिवासियों को अपने जमीन से विश्थापित न किया जाय।
सादर,
भवदीय
१-दासकन कुदादा
अध्यक्ष कोल्हान पोडाहत विस्थापन प्रतिरोधी आदिवासी जन संगठन
२- मुकेश बिरुआ
उपाध्यक्ष, अखिल भारतीय आदिवासी महासभा
(उपरोक्त के साथ कुल ८ बिंदु में चिट्टी लिखी गई है बाकि नहीं दे पा रहा हूँ)
प्रतिलिपि: राष्ट्रपति, राज्यपाल, Montek sigh Ahluwalia, B.K Chaturvidi(member yojana ayog), Rahul gandhi, CM Jharkhand, जनजाति आयोग आदि।
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