मरंग वोंगा(हो समाज के देवी देवता)

वैसे तो मरंग वोंगा दो ही होते हैं। पहला दुपुब दिशुम मरंग बोंगा और दूसरा चनला दिशुम मरंग बोंगा। दुपुब दिशुम मरंग बोंगा में प्रथम आदि दम्पति में से नर शक्ति(लुकु) की पूजा की जाती है और चनला दिशुम मरंग वोंगा में प्रथम आदि दम्पति में से नारी शक्ति(लुकुमी) की पूजा की जाती है। धीरे-धीरे आदि दम्पति में से बीर वेंदेकर, बेडा कड़िया और ताईशुम हुए फिर तीनों में सूरमी, दुर्मि और मादे: और इसी तरह चौथी पीढ़ी में पहला एक भाग बदाम, बॉयताड़ू, सरो, मिरू, और शुकु हुए और दूसरा भाग में मुटु होन, सेनताला, लिटा, एरे ओरल, और पुतम हुए। इसी चौथी पीढ़ी के मुटु होन को हम आज मुंडा वंश, सेनताला(मझला) को संताडा/संथाली, और लिटा वंश को हो कहते हैं। आज इन समुदायों के अस्तित्व को छोटानागपुर, संथाल परगना और कोल्हान के अलावा उचित संरक्षण नहीं मिल रहा है। जैसे-जैसे प्रथम आदि दम्पति से वंश पीढ़ी दर पीढ़ी बढती गई और उनके मृत नश्वर शरीरों को पञ्च तत्वों में विलीन करने के पश्चात् उनको अपने-अपने तरीकों से संस्कार किया जाता था। उसी काल से ही इन्हें अलग-अलग मरंग्वोंगा के नामों से पूजा भी जाने लगा। प्रत्येक किली में विभिन्न नामों के मरंग्वोंगा को पूजा जाता है। वंश बढ़ने के पश्चात् मनुष्यों में काम के विभाजन के आधार पर अनेक जातियों का नामांकन का चलन हुआ जिसमे बत्तीस जाति बने थे। फिर धीरे धीरे प्रत्येक विभाजित जातियों में भी घटनाक्रम एवं सस्कारों के आधार पर किली हपाटिंग(विभाजन) का समय आया। कहा जाता है की सर्वप्रथम हमारे बीच सिर्फ बारह की किली या गोत्र हुआ करता था, जो शरीर में स्थित बारह राशियों के आधार पर था। अब तो हो, मुंडा, और संथाली तीनों के साथ-साथ बत्तीस पटा में नामांकित अन्य उनतीस जातियों में से कुल हजार के आस-पास किली होंगे.

बोयो गागराई

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