आदिवासी संस्कृति में ही प्राकृतिक संतुलन है

हम आदिवासी समुदाय के लोग मुख्यत: प्राकृतिक प्रेमी हैं। हमें नदी-नालों, पोखर-झरना, तालाब-जलाशय के किनारे बसना पसंद आता है। जहाँ सुबह होते ही चिड़ियों की चहचाहट, पक्षियों के मधुर गीत, जीव जन्तुयों की उछलकुद से हम दिमाग को चंचल बना लेते हैं। वहीँ शहरों में गाड़ियों की आवाज, मशीनों की खरखराहट, दैनिक दिनचर्या में व्यस्तता, दिनभर लोगों की भाग-दौड़, धुल कणों से प्रदुषण, बस्ती-गली कोचा जहाँ-तहां राहगीरों के दुर्गन्ध की सौगात कोई नई बात नहीं। हम इसी तरीके से विकास करते रहे तो जिंदगी का मतलब ही ख़त्म हो जायेगा। हर आदिवासी समुदाय अपने दैनिक उपयोगी की सामग्रियों में वैसे ही चीजों का इस्तेमाल करता है, जो उपयोग के बाद पूरी तरह नष्ट हो जाता है या फिर प्रदुषण का कोई खतरा ही नहीं रहता है। पत्ता से बनाया गया पतल-प्लेट (चिटकी) भोजन खाने के लिए, पानी व हंडिया पीने के लिए दोना(पू:) आदि उपयोग करने के बाद दुबी(उर्बरक निर्माण गड्डे) में डाल दिया जाता है। रस्सी के रूप में सवाई घास एवं जूट, छालों द्वारा निर्मित रस्सियों का उपयोग किया जाता है। खेतों खलिहानों से लाय गए अनाजों को सुरक्षित रखने के लिए पुआल का बोड़ से बंदी या मुरुई बनाया जाता है। हमारे पर्व त्योहारों से किसी भी जल श्रोतों, नदी-नालों, तालाब, पोखर या झीलों को प्रदुषण का कोई खतरा नहीं रहता है क्योंकि हमारे समाज में पूजा के बाद पर्व त्योहारों में कोई भी चीजों को पानी में विसर्जन नहीं किया जाता है। जबकि इसके विपरीत पर्व त्योहारों के पहुँचने के ठीक पहले नदी-नालों, तालाब, या पोखरों का शुद्दिकरण सटीक विधि-विधान से किया जाता है.

Comments