सरना एवं इसपर राजनीती

आदिवासियों के लिए आज अस्तित्व का सवाल है, क्योंकि चाहे जो भी हो इतना कुछ होने के बाद भी हमें पोचाड़ा मार कर कभी हिन्दू बनाया जाता है, तो कभी इसाई बनाया जाता है। अपने ही हाल पर छोड़ भी देता तो ठीक है मगर आफत सरकारी दस्तावेजों में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई के अलावे पांचवा कोलोम आदिवासी/सरना या अन्य के लिए नहीं दिया जाता है, ताकि हम मजबूर होकर इन चार कोलोम में से किसी में टिक निशान मार दें। क्योंकि हम जिस तरह वोट बैंक के लिए इस्तमाल किये जाते हैं, उसी तरह हम जिधर रुख करें वो धर्मोलाम्बियों की संख्या तुरंत बढ़ जाती है, क्योंकि हम आदिवासी कोरा कागज जैसे हैं, जिधर खींचो उधर ही आसानी से खींचे चले जाते हैं। यही कारण है की धर्म परिवर्तन करवाने(धर्म प्रचारकों) के कार्यक्रम आदिवासी इलाकों में ज्यादा होते हैं। यही कारण है की आज तक सरना कोड को धर्म कोड में स्थान नहीं दिया गया, क्योंकि आदिवासी समाज एक सादा कागज की तरह होता है, जिसे जाति, धर्म, समाज के जरिये घुमा-फिराकर वोट बैंक में इस्तमाल किया जा सके। हम वो खाली डिब्बे की तरह होते हैं, जिनमे जिस तरह का संस्कार भर दिया जाय वो उसी जाति समाज और धर्म का हो जाता है। यह आज भी एक ताजा उदहारण के तौर पर देखा जा सकता है। जिनके परिवार के लोग पढ़े लिखे हैं, बड़े-बड़े शहरों में नौकरी कर रहे होते हैं। वे सिर्फ अपने तक ही सीमित रह जाते है, जबकि आदिवासी आरक्षण को पाने की शर्तों को पूरा गाँव के लोग ही करते है, फिर भी लोग यह कहते जरुर मिल जायेंगे की, समाज ने हमें क्या दिया? वे अपने ही आदिवासी समाज के लोगों को हीन भावना से देखते हैं। ये नहीं सोचते ही वो भी इसी समाज से पले-बड़े व खिले हैं। वे समाज में सिर्फ बुराइयाँ ढूढने में ही समय गुजार देते हैं, पर इसे सुधरने में थोडा भी उर्जा नहीं लगाना चाहते। ऐसे चरित्र वालों को ही हो में पसाह कहा जाता है। लेकिन फिर भी सोचा जाय तो समाज के लोग इतने दयालु होते हैं, की जन्म, विवाह एवं मृत्यु के साथ-साथ किसी भी अवसरों व सुसंस्कारों में बढ़-चढ़कर मदद करते हैं।

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