स्थान - मोराबादी मैदान, रांची, समय - १० बजे पूर्वाहन
जय सरना,
आप सभी से अनुरोध है की १४ अप्रैल २०१२ समय १० बजे विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों के समन्यवय में एक आह्वान पर सरना धर्म कोड एवं पांचवी अनुसूची के संविधानिक प्रावधान को शक्ति से लागू कराने के लिए जन समर्थन जुटान हेतु महारैली का आयोजन किया गया है, इसे सफल बनावें। सरना धर्म कोड का औचित्य एवं पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के सन्दर्भ में हम सभी को जानना अत्यंत आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। वैसे तो आदिवासी विश्व के लगभग सभी भागों में निवास करते हैं, भारत में आदिवासियों की आबादी अफ्रीका के बाद सर्वाधिक है। माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिनांक ५ जनवरी २०११ कैलाश बनाम महाराष्ट्र में माना है की हम आदिवासी ही भारत देश के मूल निवासी हैं। भारत देश के कुल जनसँख्या का ८% आदिवासी आबादी है लेकिन असम में लगभग एक करोड़, दिल्ली में लगभग २० लाख, अंडमान में २ लाख तथा ५वि एवं ६वि अनुसूची राज्यों को छोड़ कर अन्य राज्यों में प्रवासी के रूप में मूख्य तौर पर झारखंडी मूल के आदिवासी हैं। जिनको राज्य के भीतर प्रतिबंधन के कारण अनुसूचित जनजाति यानि आदिवासी का मान्यता नहीं मिला है, को जोड़ दिया जाय तो भारत देश के कुल जनसँख्या का लगभग १० % आदिवासी आबादी होगा। यानि लगभग ११ करोड़ हम आदिवासी होंगे। सन २०११ के जनगणना के अनुसार ९ करोड़ आदिवासी हैं चूँकि लगभग २ करोड़ आदिवासी की गणना या तो हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, बौद धर्म के रूप में या अन्य में की जाती है, यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। आदिवासी विभिन्न धर्मों में बंटे हुए हैं, पर परंपरागत एवं रूढिगत प्राकृतिक धर्म सरना मानने वाले ५ करोड़ हैं।
जो प्रकृति की श्रृष्टि के समय से सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं तथा रुढियों के अनुसार मान्यता प्राप्त है, इतना ही नहीं हमारी धार्मिक स्थल एवं हमारी धर्म विभिन्न सरकारी दस्तावेजों में दर्ज होकर है। पर आजाद भारत में देश की जनगणना रिपोर्ट फॉर्म में अलग धार्मिक कोलम नहीं है, अर्थात सरना कोड नहीं है, जिससे हमारी जनसँख्या का सही आकलन नहीं हो पा रहा है। गौर करने की बात है की उपनिवेशिक भारत में पहली बार अंग्रेजों ने हम आदिवासियों के बारे में सूचना प्राप्त करने हेतु सन १८९१ की जनगणना रिपोर्ट में जनसँख्या आयुक्त J.A.Bense ने जनजातियों की श्रेणी में एक उप शीर्ष बनाया पर धर्म प्रकृतिवादी कहा गया। जो सन १९४१ की जनगणना रिपोर्ट तक था एवं सन १९४१ में २.४७ करोड़ प्रकृतिवादी धर्म मानने वालों की संख्या थी। देश आजाद होने के बाद संविधानिक आदेश १९५० एवं जनगणना अधिनियम १९४८ के अनुसार सन १९५१ की जनगणना रिपोर्ट में हमारा धर्म का कोलम हटा दिया गया, एवं तब से आज तक हमारी धर्म की गन्ना नहीं की गई। ज्ञातब्य हो की भारतीय संविधान में निहित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद २५ में अंत:कारण की और धर्म आबाद रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को सामान हक़ है, इसके तहत हमें सरना धर्म मानने का हक़ है पर जनगणना रिपोर्ट में सरकारी मान्यता नहीं मिलने से अनुच्छेद १४, विधि के समक्ष समता के अधिकार से वंचित किया गया है। इतना ही नहीं अनुच्छेद २६ के तहत धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता के अधीन चल एवं अचल (जंगल और स्थावर) सम्पति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार तथा ऐसी सम्पति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार से वंचित किय जा रहे हैं। चूँकि हमारे धार्मिक जमीन जो खतियानी रिपोर्ट में दर्ज कोकर है, को सरकार एवं गैर समाज के इत्तर व्यक्तियों द्वारा अतिक्रमण किया जा रहा है। अत: सरना धर्म की मान्यता तथा सरना न्यास बोर्ड का गठन करके धार्मिक सम्पतियों का अधिकार दिया जाय ताकि हमारे धार्मिक जमीन का स्वामित्व बना रहे और इस सम्पतियों का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार हमें मिल सके। जबकि २७-२८ ओक्टुबर २०११ को वेटिकेन सिटी, रोम इटली में विश्व शांति हेतु सर्वधर्म सम्मलेन में सरना धर्म को मान्यता दिया गया पर अपने देश में हमें सरना धर्म की पहचान नहीं दी गई है। यह एक सोची समझी षड़यंत्र है। हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसके अलावे भी आदिवासियों को अनेक संविधानिक सुरक्षा दी गई है, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्रपति महोदय ने पांचवी एवं ६वि अनुसूची १९५० आदेश जारी किया है। उत्तरी पूर्वी राज्यों को छोड़कर शेष भारत में रहने वाले ९ राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों को ५वि अनुसूची में रखा गया है। जिसके तहत ५वि अनुसूची क्षेत्र के लोगों का प्रशासन एवं नियंत्रण इनका कल्याण एवं उन्नति तथा इन क्षेत्रों में शांति एवं सुशासन का व्यवस्था कायम रखना राज्यपाल एवं जनजाति सलाहकार परिषद् के ऊपर शक्ति निहित है। इस अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और कानून के हिसाब से संसद और विधानसभा के ऊपर देश के महामहिम राष्ट्रपति के अनुमोदन से राज्यपाल को विधायन यानि कानून बनाने की शक्ति दी गई है। अत: जब भी हम संविधान, लोकतंत्र और स्वराज को समझने की कोशिश करते हैं, उस समय संविधान के इस विशेष क्षेत्रों और प्रावधानों को समझना भी जरुरी है। ५वि अनुसूची क्षेत्रों में देश का सामान्य कानून तब तक लागु नहीं हो सकती है जब तक उसे राज्यपाल तथा जनजाति सलाहकार परिषद् छानबीन कर एवं परामर्श कर राष्ट्रपति से अनुमति लेकर राज्यपाल लोक अधिसूचना जारी नहीं करते हैं। जिस कानून से आदिवासी का अधिकार एवं इस क्षेत्र का शांति एवं सुशासन का हनन होता है वह ५वि अनुसूची क्षेत्र में लागु नहीं होगा - राम कृपाल भगत बनाम बिहार सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट। यह आजाद भारत देश की सबसे बड़ी दुखद घटना है की आदिवासी विधयाकों एवं सांसदों ने भी जिम्मेदारी के साथ काम नहीं किया जिससे सरकार ने न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन किया बल्कि करोड़ों आदिवासियों की जीविका छीनकर उनको स्वंय की जमीन पर अतिक्रमनकारी बना दिया गया।
पम्पलेट से...
जय सरना,
आप सभी से अनुरोध है की १४ अप्रैल २०१२ समय १० बजे विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों के समन्यवय में एक आह्वान पर सरना धर्म कोड एवं पांचवी अनुसूची के संविधानिक प्रावधान को शक्ति से लागू कराने के लिए जन समर्थन जुटान हेतु महारैली का आयोजन किया गया है, इसे सफल बनावें। सरना धर्म कोड का औचित्य एवं पांचवी अनुसूची के प्रावधानों के सन्दर्भ में हम सभी को जानना अत्यंत आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। वैसे तो आदिवासी विश्व के लगभग सभी भागों में निवास करते हैं, भारत में आदिवासियों की आबादी अफ्रीका के बाद सर्वाधिक है। माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिनांक ५ जनवरी २०११ कैलाश बनाम महाराष्ट्र में माना है की हम आदिवासी ही भारत देश के मूल निवासी हैं। भारत देश के कुल जनसँख्या का ८% आदिवासी आबादी है लेकिन असम में लगभग एक करोड़, दिल्ली में लगभग २० लाख, अंडमान में २ लाख तथा ५वि एवं ६वि अनुसूची राज्यों को छोड़ कर अन्य राज्यों में प्रवासी के रूप में मूख्य तौर पर झारखंडी मूल के आदिवासी हैं। जिनको राज्य के भीतर प्रतिबंधन के कारण अनुसूचित जनजाति यानि आदिवासी का मान्यता नहीं मिला है, को जोड़ दिया जाय तो भारत देश के कुल जनसँख्या का लगभग १० % आदिवासी आबादी होगा। यानि लगभग ११ करोड़ हम आदिवासी होंगे। सन २०११ के जनगणना के अनुसार ९ करोड़ आदिवासी हैं चूँकि लगभग २ करोड़ आदिवासी की गणना या तो हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, बौद धर्म के रूप में या अन्य में की जाती है, यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। आदिवासी विभिन्न धर्मों में बंटे हुए हैं, पर परंपरागत एवं रूढिगत प्राकृतिक धर्म सरना मानने वाले ५ करोड़ हैं।
जो प्रकृति की श्रृष्टि के समय से सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं तथा रुढियों के अनुसार मान्यता प्राप्त है, इतना ही नहीं हमारी धार्मिक स्थल एवं हमारी धर्म विभिन्न सरकारी दस्तावेजों में दर्ज होकर है। पर आजाद भारत में देश की जनगणना रिपोर्ट फॉर्म में अलग धार्मिक कोलम नहीं है, अर्थात सरना कोड नहीं है, जिससे हमारी जनसँख्या का सही आकलन नहीं हो पा रहा है। गौर करने की बात है की उपनिवेशिक भारत में पहली बार अंग्रेजों ने हम आदिवासियों के बारे में सूचना प्राप्त करने हेतु सन १८९१ की जनगणना रिपोर्ट में जनसँख्या आयुक्त J.A.Bense ने जनजातियों की श्रेणी में एक उप शीर्ष बनाया पर धर्म प्रकृतिवादी कहा गया। जो सन १९४१ की जनगणना रिपोर्ट तक था एवं सन १९४१ में २.४७ करोड़ प्रकृतिवादी धर्म मानने वालों की संख्या थी। देश आजाद होने के बाद संविधानिक आदेश १९५० एवं जनगणना अधिनियम १९४८ के अनुसार सन १९५१ की जनगणना रिपोर्ट में हमारा धर्म का कोलम हटा दिया गया, एवं तब से आज तक हमारी धर्म की गन्ना नहीं की गई। ज्ञातब्य हो की भारतीय संविधान में निहित धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद २५ में अंत:कारण की और धर्म आबाद रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता सभी व्यक्तियों को सामान हक़ है, इसके तहत हमें सरना धर्म मानने का हक़ है पर जनगणना रिपोर्ट में सरकारी मान्यता नहीं मिलने से अनुच्छेद १४, विधि के समक्ष समता के अधिकार से वंचित किया गया है। इतना ही नहीं अनुच्छेद २६ के तहत धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता के अधीन चल एवं अचल (जंगल और स्थावर) सम्पति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार तथा ऐसी सम्पति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार से वंचित किय जा रहे हैं। चूँकि हमारे धार्मिक जमीन जो खतियानी रिपोर्ट में दर्ज कोकर है, को सरकार एवं गैर समाज के इत्तर व्यक्तियों द्वारा अतिक्रमण किया जा रहा है। अत: सरना धर्म की मान्यता तथा सरना न्यास बोर्ड का गठन करके धार्मिक सम्पतियों का अधिकार दिया जाय ताकि हमारे धार्मिक जमीन का स्वामित्व बना रहे और इस सम्पतियों का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार हमें मिल सके। जबकि २७-२८ ओक्टुबर २०११ को वेटिकेन सिटी, रोम इटली में विश्व शांति हेतु सर्वधर्म सम्मलेन में सरना धर्म को मान्यता दिया गया पर अपने देश में हमें सरना धर्म की पहचान नहीं दी गई है। यह एक सोची समझी षड़यंत्र है। हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसके अलावे भी आदिवासियों को अनेक संविधानिक सुरक्षा दी गई है, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्रपति महोदय ने पांचवी एवं ६वि अनुसूची १९५० आदेश जारी किया है। उत्तरी पूर्वी राज्यों को छोड़कर शेष भारत में रहने वाले ९ राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों को ५वि अनुसूची में रखा गया है। जिसके तहत ५वि अनुसूची क्षेत्र के लोगों का प्रशासन एवं नियंत्रण इनका कल्याण एवं उन्नति तथा इन क्षेत्रों में शांति एवं सुशासन का व्यवस्था कायम रखना राज्यपाल एवं जनजाति सलाहकार परिषद् के ऊपर शक्ति निहित है। इस अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और कानून के हिसाब से संसद और विधानसभा के ऊपर देश के महामहिम राष्ट्रपति के अनुमोदन से राज्यपाल को विधायन यानि कानून बनाने की शक्ति दी गई है। अत: जब भी हम संविधान, लोकतंत्र और स्वराज को समझने की कोशिश करते हैं, उस समय संविधान के इस विशेष क्षेत्रों और प्रावधानों को समझना भी जरुरी है। ५वि अनुसूची क्षेत्रों में देश का सामान्य कानून तब तक लागु नहीं हो सकती है जब तक उसे राज्यपाल तथा जनजाति सलाहकार परिषद् छानबीन कर एवं परामर्श कर राष्ट्रपति से अनुमति लेकर राज्यपाल लोक अधिसूचना जारी नहीं करते हैं। जिस कानून से आदिवासी का अधिकार एवं इस क्षेत्र का शांति एवं सुशासन का हनन होता है वह ५वि अनुसूची क्षेत्र में लागु नहीं होगा - राम कृपाल भगत बनाम बिहार सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट। यह आजाद भारत देश की सबसे बड़ी दुखद घटना है की आदिवासी विधयाकों एवं सांसदों ने भी जिम्मेदारी के साथ काम नहीं किया जिससे सरकार ने न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन किया बल्कि करोड़ों आदिवासियों की जीविका छीनकर उनको स्वंय की जमीन पर अतिक्रमनकारी बना दिया गया।
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