देश का अगला राष्ट्रपति एक आदिवासी क्यों न हो?

क्या देश के राष्ट्रपति के पद पर किसी आदिवासी के आसीन होने पर देश के आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक और राजनितिक क्षितिज पर कोई नया सूरज का उदय हो सकता है? क्या उनकी हैसियत में कोई परिवर्तन हो सकता है? साफ शब्दों में कहा जाय तो क्या किसी आदिवासी के राष्ट्रपति बनने पर समाज को इसका सीधा लाभ मिल सकता है? कई ज्वलंत समस्या और सवाल हैं, जिसका समाधान और जवाब ढूंढा जाना चाहिए। देश में हजारों जातियां, भाषाई समूह, और समुदाय हैं, जो मोटे तौर पर प्रांतीय, धार्मिक और प्रमुख भाषा समूहों में रखे गए हैं. देश के ६५ वर्ष के प्रजातान्त्रिक शासक पद्धति में प्राय: सभी प्रमुख बहुसंख्यक और धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधियों को राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने का मौका मिला है. हिन्दू, मुस्लमान, सिख, दलित के प्रतिनिधि के रूप में भारत के प्रथम नागरिक बनने का मौका मिला है और इसका मनोवैज्ञानिक लाभ इन समाजों को मिला है. भारत के आदिवासी समाज के प्रतिनिधि को देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने का मौका अब तक नहीं मिला है. अब तक १२ बार राष्ट्रपति के पद पर चुनाव हुए किन्तु किसी आदिवासी को इस पद पर सर्वसहमति से आसीन करने का कोई सर्वमान्य सिद्दांत नहीं बन पाया है. देश की आजादी के ६५ वर्ष हो गए हैं, लेकिन देश के मूलनिवासियों/आदिवासियों के किसी प्रतिनिधि को राष्ट्रपति बनवाने का कोई मुहीम नहीं चलाया गया, न ही आदिवासियों द्वारा इस मांग को जोरदार ढंग से उठाया गया. करीब १२ करोड़ आदिवासी इस देश के मूलनिवासी हैं, ऐसा माननीय सुप्रीम कोर्ट का भी मत है. यानि आदिवासी इस देश को प्रथम आबाद करने वाले लोग हैं. मानव विज्ञानं के हिसाब से आदिवासी वैसे भी प्रथम नागरिक हैं इस देश के, लेकिन संविधानिक पद राष्ट्रपति के रूप में देश के प्रथम नागरिक के पद से हमेशा उन्हें दूर रखा गया है, यह अत्यंत ही दुर्भाग्य की बात है. उनकी विकास के लिए संविधान में अलग प्रावधान किये गए है. लेकिन तमाम विकासात्मक योजनाओं के कार्यान्वयन के बावजूद उनके पिछड़ेपन का कोई सार्थक इलाज नहीं हो पाया है. वे आज पहले से ज्यादा विपन्न हैं. उनकी खेती-बारी की जमीन हाथ से निकलती जा रही है. देश में वे सबसे ज्यादा वंचित एवं शोषित हैं. आय एवं सम्पति के साधनों से बेदखल किया जा रहा है और उनकी आवाज को भी दबाने की कोशिस जारी है. आदिवासी समाज आज विषम परिस्थितियों से गुजर रहा है. आदिवासी क्षेत्र उग्रवाद, अतिवाद, और हिंसावाद का शिकार है. विकास का पहिया थम सा गया है. शासन प्रशासन में आदिवासी प्रतिनिधियों की मदिम पहुँच के कारण समाज में कोई उत्साह का माहौल नहीं है. सामाजिक और आर्थिक उन्नति के संविधानिक उलंघन की समीक्षा न होने तक आदिवासी समाज की हैसियत में कोई परिवर्तन नहीं होगा. आदिवासी समाज को देश में उनका वाजिब हक़ और सम्मान मिले यह चाहत सभी आदिवासियों की है. सिखों की संख्या २००१ की जनगणना में १ करोड़ ९० लाख है, और उन्हें भी राष्ट्रपति का पद मिला है, तो फिर 8 करोड़ 20 लाख की जनसँख्या वाले आदिवासी को यह पद क्यों नहीं?

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