राजभवन के सेमिनार में आदिवासियों के साथ धोखा

दिनांक २० जून २०१२ को राजभवन में आयोजित पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था पर एकदिवसीय राज्यस्तरीय सम्मलेन में राज्यभर के पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था एवं विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक अगुओं को झारखण्ड के राज्यपाल कि ओर से आमंत्रित किया गया था. सम्मलेन का विषय विन्दु निम्नलिखित थे - १- झारखण्ड राज्य के विकास में जनजातीय समाज की भूमिका २- पारंपरिक सांस्कृतिक धरोहर जैसे कला, संस्कृति भाषा तथा बौद्दिक सम्पदा एवं उनकी सुरक्षा ३- संविधानिक प्रावधान अंतर्गत पांचवी अनुसूची क्षेत्र एवं अधिकार ४- परम्परागत स्वशासन व्यवस्था और पंचायती व्यवस्था ५- पांचवी अनुसूची क्षेत्र और सरकारी योजना.
सम्मलेन का आलम यह था कि उपरोक्त विषय विन्दुओं पर विषय प्रवेश तक नहीं किया गया और न ही विशेषज्ञ वक्ताओं द्वारा विचार रखा गया. दुर्भाग्य वश सम्मलेन में उपरोक्त किसी विन्दु पर चर्चा तक नहीं कि गई. हमें उम्मीद थी कि अ) झारखण्ड राज्य के विकास में पंडित जवाहरलाल नेहरु के पंचशील के सिद्दांत के तहत हमें अपनी शर्तों पर विकास करने का मौका मिलेगा. आ) पारंपरिक सांस्कृतिक धरोहर(कला, संस्कृति, भाषा तथा बौद्दिक) सम्पदा के संरक्षण एवं संवर्द्दन के लिए कोई ठोस निर्णय होगा. (इ) पांचवी अनुसूची को अक्षरश: लागू करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट के समता जजमेंट के आलोक में अनुसूचित क्षेत्रों में गैर आदिवासियों के खनन पट्टे रद्द करते हुए आदिवासी स्वावलंबी सहकारिता समितियों को खनन अधिकार दिया जायेगा. (ई) परंपरागत स्वशासन व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए अनुच्छेद २७५(१) के तहत कोषांग कि स्थापना किया जायेगा तथा (उ) पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में अलग से सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन कि रणनीति बनाई जाएगी.
आश्चर्य जनक किन्तु सत्य कि उपरोक्त कुछ भी नहीं हुआ, सिर्फ आदिवासियों को यह तर्क दिया जाता रहा कि हम भारत के लोग एक सामान हैं, चाहे वह हिन्दू हो, या मुस्लमान हो, या इसाई हो या आदिवासी हो, सभी एक हैं. और सभी को मिल जुलकर रहना चाहिए.
बड़ी उम्मीद से राज्यभर से आए आदिवासी समाज के अगुआगण अपने को पिछले ६५ सालों कि
सरकारी रुढ़िवादी परंपरा के अनुसार पुन: ठगे गए और अपमान का घूंट पीकर अपने-अपने घरों को वापस लौट गए यह बताने को कि आजादी के बाद से ही सरकारें आदिवासियों को इसी तरह बहला-फुसला कर, खिला पिला कर बरगलाती रही है. प्रोग्राम ऐसा लगा मानो केंद्र सरकार राज्यपाल के संवैधानिक पद को इस्तेमाल कर आदिवासियों के बीच अपनी पकड़ बनाने कि रणनीति पर काम कर रही हो, जिसमे आदिवासियों को कुछ नहीं मिलेगा, सिवाय अगले चुनाव में वोट कि अपील के.

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