सहजन (मुनगा साग) के सामने नतमस्तक Unicef

दिनांक २४ जुलाई २०१२ को विकास भवन चाईबासा में unicef की ओर से आदिवासी गर्भवती महिलाओं के संस्थागत डेलिवेरी में अरुचि एवं होम डेलिवेरी में विश्वास, आयरन की गोली खाने में अरुचि, डेलिवेरी के समय रुढियों के कारण अंधविश्वास, जच्चा बच्चा के लालन पालन में रुढियों के कारण अंधविश्वास एवं किशोरियों में स्वस्थ्य के आधुनिक तरीकों की रुढियों के कारण अज्ञानता पर एक शोध रिपोर्ट पेश किया गया. रिपोर्ट में यह पेश करने की कोशिश हुई कि आदिवासी आज भी अपने पुराने परम्परा एवं रुढियों के कारण आधुनिक विज्ञान कि सुविधा को नजरअंदाज कर रहे हैं. यानि प्रचार प्रसार कर उन्हें मुख्य धारा में नहीं लाया जा पाया है. और उस रिपोर्ट में यह कहने कि कोशिश कि गई कि आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने के लिए unicef एक बड़ा प्रोग्राम विश्व बैंक या अन्य वैश्विक संस्थाओं से पैसा लेकर यहाँ के आदिवासियों को मुख्य धारा में शामिल करने का काम प्रोजेक्ट के रूप में लाने का काम करने वाली है. जो भी आदिवासियों के बीच है, वह अंध विश्वास है और देशी जड़ी बूटियों से उन्हें दूर कर, आधुनिक दवाओं के भरोसे लाया जाय यही मुख्य बिन्दु था. इसके लिए पूरा जिला प्रशासन विभिन्न विभागों के साथ उपस्थित था, पूरी मीडिया कि टीम उपस्थित थी और विभिन्न सामाजिक संगठनों को भी इसमें आमंत्रित किया गया था. उसमे से एक हो समाज महासभा भी थी. महासभा से केन्द्रीय अध्यक्ष मधुसूधन मरला एवं मैं मुकेश बिरुवा थे. उनका काम्पियूटर प्रेजेनटेशन के बीच बीच में बहस रखा गया था. पहला बहस आने पर मेरे विचार भी आमंत्रित किया गया. सर्वप्रथम मैंने उनसे पूछा कि विज्ञान युग कि शुरुआत कब हुई? कोई नहीं बता पाया. फिर मैंने उन्हें कहा कि इतिहासिक दृष्टि से विज्ञान युग कि शुरुआत १८१४-१९ के बीच हुई थी. यानि विज्ञान युग बमुश्किल २०० साल का बच्चा है. इस पृथ्वी पर यह जीवन करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है और आज की हम संतान भी उसी करोड़ों वर्षों से चले आ रहे जीवन का अंश मात्र हैं. २०० साल पहले क्या आयरन की गोली खाकर बच्चों को जन्म दिया था? क्या उस समय हॉस्पिटल में डेलिवेरी होती थी? मैंने तर्क देते हुए कहा की प्रकृति के पास मानव जीवन सहित पूरे जीवों की समस्या का पूरा इलाज है, लेकिन उसे आधुनिक मानव, विकास के अन्धानुकरण में नहीं समझ पाया. चूँकि तथा कथित विकसित समाज का एकमात्र धंधा व्यवसाय है और प्रकृति के संसाधनों को व्यवसाय की दृष्टि से सिर्फ देखती है. लेकिन आदिवासियों का प्रकृति के साथ सम्बन्ध भौतिक किस्म का नहीं वरन पाराभौतिक अध्यात्मिक किस्म का है. इसे आप लोग नहीं समझ पायेंगे. हम आदिवासी जब सहजन(मुनगा) का साग खा रहे होते हैं, तो आप जैसे विकसित लोग जब देख लेते हैं तो न्यूज़ बनता है की आदिवासी इतना गरीब है कि घास खा कर जिन्दा रहने पर मजबूर है. लेकिन हालिया शोध जो अफ्रीका एवं भारत के लखनऊ शोध केन्द्रों में हुआ है, से यह पता चल गया है कि सहजन में Carbohydrate, protein, calcium, potaisium, iron, magnesium, vitamin A, C एवं B-complex प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. मुनगा साग में दूध की तुलना में ४ गुना अधिक कैल्सियम, दूध एवं अंडे से 2 गुना अधिक प्रोटीन, गाजर से चार गुना अधिक विटामिन A , संतरे से ७ गुना अधिक विटामिन C, केले से तीन गुना अधिक पोटासियम, पालक से अधिक मात्रा में लोहा, पाया जाता है. अब बताइए की जो लोग ऐसे खाद्य खाते हों तो फिर आयरन की गोली की क्या आवश्यकता है? विज्ञान का यह मतलब कभी नहीं हो सकता की आदिवासियों के प्रकृति ज्ञान को अंध विश्वास का नाम दिया जाय और कृत्रिम तरीके से निर्मित आयरन सरीकी दवाइयां मुफ्त में ही सही लेकिन side effect के साथ आदिवासियों के बीच बाँट दी जाए. साथ ही जिस संस्थागत डेलिवेरी की आप वकालत कर रहे हैं उसमे यह बताने की कोशिश हो रही है की हॉस्पिटल में ही डेलिवेरी कराना चाहिए. तो इसमें भी यह बात लागू होती है कि आदिवासियों के लिए यह सब व्यवस्था एक एलियन व्यवस्था है. जहाँ तक आने के लिए गरीब के पास पैसे की कमी, रोड की कमी, एम्बुलैंस की कमी साथ ही हॉस्पिटल में मानवीय गुणों कि कमी व्याप्त है. यहाँ आदिवासी अपने धर्म, संस्कृति, समाज से भिन्न एक एलियन व्यवस्था को देख कर स्वंय कि घबरा जाता है. ऐसे में जब आपके रिपोर्ट से भी यह स्पष्ट हो गया है कि होम डेलिवेरी का प्रतिशत सिर्फ झारखण्ड में ही नहीं वरन पूरे भारत में ज्यादा है तो क्यों नहीं होम डेलिवेरी में ही ज्यादा से ज्यादा सुविधा देने पर विचार हो? वहां पर भी सारी सुविधाएँ देने पर विचार होना चाहिए. लेकिन आधुनिकता के आड़ में हम अपनी संस्कृति कि बलि को कतई नहीं चढ़ने देंगे. हम आदिवासी हो समुदाय में बच्चे के जन्म के समय सर की ओर एक तीर को जमीन में धंसा कर रखने का रिवाज है और जो भी Human waste होता है उसे हम अपने घर के पीछे दफनाते हैं. इसका आदिवासी संस्कृति में विशेष महत्व होता है. यह व्यवस्थाएं क्या हॉस्पिटल में हैं? नहीं तो हम आदिवासी जो गाँव देहात में रुढी परम्पराओं के साथ रहते हैं क्यों आयें. वहां पर हमारा परिवार, सगे सम्बन्धी भी होते हैं. सबसे पहले आपलोगों को हम आदिवासियों के संस्कार, संस्कृति एवं रहन सहन के तौर तरीकों को जानने के बाद ही कुछ भी बोलना एवं बात को रखना चाहिए.
मेरी बात सुन कर एक बार तो Unicef कि पूरी टीम को मानो सांप सूँघ गया हो. इस पर उपायुक्त महोदय ने अपनी सहमति देते हुए विज्ञान की बात नहीं करते हुए आदिवासियों की संस्कृति को बचाए रखते हुए कार्यक्रम की रणनीति बनाने की बात कही. और सिविल सर्जन एवं पूरे सरकारी विभाग को स्पष्ट निर्देश देते हुए उन्होंने कहा की आदिवासी समाज की ऐसे प्रोग्रामों में पूरी भागीदारी सुनिश्चित किया जाए. उनसे सहमति अनुशंसा के बाद ही कोई प्रोजेक्ट बनाई जाए. चूँकि हम जिसके लिए काम करना चाहते हैं, वही यदि इस प्रोग्राम से लाभान्वित नहीं होगा तो उस प्रोग्राम का कोई औचित्य नहीं होगा.
सिविल सर्जन ने भी जब अपने विचार रखे तो उन्होंने कहा कि यदि देश की सभी गर्ववती महिलाएं सरकारी आकड़ों में दर्ज हो जाए, तब हम प्रत्येक गर्ववती महिला को आवश्यक १०० आयरन की गोली तो नहीं दे पाएंगे, देश में हो रहे उत्पादन की हिसाब से हम सिर्फ १० गोली ही दे पाएंगे. इसीलिए हमें वैकल्पिक एवं पारंपरिक तरीकों को समझ कर उन्हें बढ़ावा देना चाहिए. यानि सहजन को खाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना होगा. जिससे आयरन की कमी को पूरी की जा सके. अंत में सभी रिपोर्ट सुनने देखने के बाद यह निर्णय हुआ कि सहजन(मुनगा) को जन-जन तक पहुचने का काम हम सभी मिल कर करेंगे और आयरन कि कमी को पूरा करेंगे. यह
Unicef के प्रोजेक्ट का एक हिस्सा होने जा रहा है. और भी ऐसी ही कई तथ्यों पर मैंने और केन्द्रीय अध्यक्ष, आदिवासी हो समाज महासभा, मधुसूधन मरला ने बात रखी और सभी सलाहों को ध्यान पूर्वक रखा गया. Unicef कि टीम ने भी यह स्वीकार किया कि पहली बार हमलोग किसी समाज के प्रतिनिधियों के साथ बैठ रहे हैं और इतने सारे मूल्यवान विचार आए यह Unicef के लिए भी एक उपलब्धि से कम नहीं है.

Comments

Unknown said…
‎Mukesh Birua jee i have few submissions here.. UNICEF may be wrong to term denial of iron folic acid nad institutional delivery by our sisters and brothers in West Singhbhum as superstition and conservative attitude(as there may be some other reason for that)..but how can we deny the high prevalence of iron deficiency among adolescent girls and pregnant women in tribal region.. as per as my little knowledge goes iron deficit is one of the major cause for maternal mortality rate and malnutrition of children..most of the children in villages are malnourished(no need for medical records or ICDS register at anganwadi to check a simple close observation can prove that).. agreed home delivery is more than institutional delivery but is that safe and good for new born.. certainly not.. n providing all required medical provisions for home delivery is distance dream when we cant provide better access to and provisions even for institutional delivery(as u said its not done properly now)..while saying that i agree that alternative arrangements may be explored to to preserve the traditional rituals.. hope my comments are taken in a positive note...