एशिया समेत भारत में कई आदिवासी समुदाय आज लुप्त या खत्म होने के कगार पर हैं. ये आदिवासी समुदाय आज कई खतरों से जूझ रहे हैं. खास कर बड़ी परियोजनाओं यथा डैम, सड़क, उद्योग, खनन, शहरीकरण के लिए आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों को शोषित, खत्म एवं उनके विरोध को संहार करके खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है. आदिवासी समुदाय हमेशा प्रकृति के सेवक रहे हैं और उनके सभी विश्वास, आस्था, इन्हीं प्रकृति से जुड़े हैं. ऐसे में आज प्राकृतिक संसाधनों जहाँ आदिवासी समुदाय निवास करते हैं को आज विभिन्न राज्य सरकारों एवं उनके एजेंसियों ने कब्ज़ा कर रखा है. छतीसगढ़ का एक उदहारण लिया जाए तो हम पाएंगे कि नदियाँ जो आदिवासियों के लिए पानी का श्रोत एवं उनके जीविकोपार्जन का माध्यम भी है को छतीसगढ़ सरकार ने नीजि कंपनियों को बेच दिया है, जिस पर उनका सदियों से अविनिमेय अधिकार प्रकृति ने दिया है आज उन्हें भौतिक दुनिया के डकैत उनसे लूटने के कानून बनाकर लूट रहे हैं. इन नदियों के इस्तेमाल पर उन्हें कालांतर में टैक्स देना पड़ेगा और कृषि एवं अन्य कार्यों के लिए भारी भरकम राशि उनसे ली जाएगी.
इसी तरह खनन के क्षेत्र में भी छतीसगढ़ में तांडव चल रहा है. आदिवासियों के बहुत से रहवासों को खनन के लिए जबरन सरकारों के इशारे पर नीजि एवं सरकारी गुंडों के इस्तेमाल से खाली कराया गया है. ऐसा इसीलिए किया गया है ताकि कोई वहां रह कर कोई विरोध न कर सके. जो भी विरोध करता है उन्हें वहां के आदिवासी विरोधी कानून छतीसगढ़ विशेष सुरक्षा कानून २००६ के तहत करवाई कर जेल के अन्दर कर दिया जाता है.
पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासी भी इससे अछूते नहीं हैं. वे आज पूंजीपति वर्ग के द्वारा जबरन विकास के नाम पर शोषित हो रहे हैं. इसी का नतीजा हैं कि आज वहां अलगाव वाद कि लहू जल उठी है. पेट्रोलियम उत्खनन के लिए वह भी भारत देश की जरुरत को पूरा करने के बहाने वहां के आदिवासियों को दरकिनार कर उनके समाज, संस्कृति, एवं अधिकारों को छीना जा रहा है. उन्हें अपने अनुष्ठानों को मानने से रोका जा रहा है. यही गतिविधियों के कारण वहां के आदिवासी देश के बाकी हिस्सों से कट गए हैं. उन्हें दबाने के सभी कदम सरकार ने उठा रखे हैं कि यहाँ कि आवाज देश के अन्य हिस्सों में कभी न जाए. बहुत से हिस्से को अशांत क्षेत्र घोषित किया गया है और वहां शांति बहाल करने के नाम पर आदिवासी विरोधी कानून आर्म्ड फोर्सेस स्पेसल पावर एक्ट १९५८ के कारण सेनाओं को टॉर्चर, रैप, एवं अपने मर्जी से किसी को भी मारने का अधिकार मिला हुआ है. और इसी कारण से पूर्वोत्तर राज्यों से पूरा देश कटा कर रखा हुआ है.
भारत में अब तक ४००० के लगभग डैम बनाए गए जिसमे नर्मदा डैम एक उदहारण मात्र है जहाँ से लाखों की संख्या में आदिवासियों को उनके रहवासों से बेदखल किया गया है. ऐसे मामलों में न्यायालय भी आदिवासियों के खिलाफ ही नजर आते हैं. भारत ऐसे बड़ी परियोजनाओं के मामले में चीन एवं अमेरिका से ही पीछे है. यह सर्वविदित तथ्य है की सामाजिक एवं मानवीय नुक्सान इन डैमों से होने वाले फायदे से कई गुना बड़े हैं. इनसे होने वाले नुकसान हमेशा से एक बड़े जनसंहार के रूप में भारत ने देखा है. यह सत्य है की आज आदिवासी ८ फीसदी जनसँख्या को प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु विबिन्न परियोजनाओं से विस्थापितों की संख्या ४७ फीसदी आदिवासियों की ही है.
विभिन्न उत्खनन एवं शोषण के बाद आदिवासियों की जमीन चूसे हुए आम की तरह छोड़ दी जाती है जिसका कोई काम नहीं हो सकता. विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा इसके लिए आवाज भी उठाई जाती है किन्तु उन्हें भी विकास विरोधी बता कर विभिन्न कानूनों के तहत फंसा दिया जाता है. और एक कहावत है कि कुत्ते कि मौत मरने के लिए आदिवासियों को छोड़ दिया जाता है.
गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासियों पर जुल्म को अक्सर आदिवासियों को सहन करते रहना पड़ा है. यही बदनीयती हमेशा से आदिवासियों के साथ होता रहा है. और यह पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ा है मानो आदिवासी जाग जायेंगे उससे पहले उन्हें रौंद डाला जाए. यह इस चीज का संकेत है कि भारत में कानून का शासन या सर्वोच्चता समाप्ति कि ओर है. भारत अपने को सन २०२० तक विकसित करने का सपना लिए है, किन्तु यह पूर्णत: आदिवासी एवं अन्य गरीब तबकों के विनाश पर खड़ा किया जा रहा एक महल जैसा है. और यही स्थिति बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब आदिवासी इतिहास कि चीज हो जायेंगे. उनका अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा और भारत आदिवासियों से मुक्त राष्ट्र के रूप में दर्ज हो जायेगा. तब अंतराष्ट्रीय आदिवासी दिवस पर कोई हल्ला गुल्ला नहीं होगा, कोई हक कि बात नहीं होगी, हो सकता है इस दिवस कि प्रासंगिकता ही खत्म हो जाए.
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