कुजू डैम के बहाने हो समाज टूट के कगार पर..

कुजू डैम बनाने के लिए कागजी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. भू अर्जन विभाग ने पेसा कानून के तहत ग्राम सभा करने के लिए प्रत्येक विस्थापित होने वाले गाँव में सूचना पहुँचाया है. यह परियोजना यों तो १९८० के दशक से ही चल रही है, लेकिन आदिवासियों के तीव्र विरोध के कारण बनाया नहीं जा सका था. इस बार विरोध का तेवर कुछ ढीला/कमजोर नजर आ रहा है. चूंकि कई गाँव में लोगों ने पैसे लेने की इच्छा जाहिर की है. गाँव में मुख्य रूप से हो समुदाय के लोग वास करते हैं. आदिवासी हो लोगों का व्यवहार हमेशा से जमीन नहीं देने की रहती आई है, परन्तु इस बार उनका भी मन डोलने की ख़बरें जोर शोर से आ रही है. इसके पीछे चीजों को मैंने समझने की कोशिश की तो कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये. आदिवासी हो समुदाय का उपरोक्त व्यवहार कुजू डैम क्षेत्र(तांतनगर प्रखंड) में देखने सुनने को मिल रहा है. Actually RSS (राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ) की गतिविधियाँ पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में जोर-शोर से चल रही है. इन्होने ब्रह्मण वादी सोच आदिवासियों में घुसा दी है. सर्वप्रथम इस संगठन ने एक गाँव को संगठित से असंगठित किया. कई गाँव में तो हो समुदाय का पर्व (यथा मागे, बा आदि) एक दिन में न होकर दो अलग अलग तिथियों में संपन्न हो रहा है. और प्रत्येक गाँव में सरस्वती पूजा एवं दशहरा पूजा मनाया जा रहा है. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस कद्र ब्राह्मणों ने आदिवासी हो समाज को अपने चंगुल में फंसा कर तोड़ दिया है. कई गाँव के दियुरी तक RSS के धार्मिक अनुष्ठानों के सदस्य बन गए हैं, और ब्राह्मणों की सोच को आदिवासी हो समुदाय के घर घर तक पहुँचाया गया है. इसका प्रतिफल यह हुआ की दिकुओं की सुख सुविधा की चीजें अब हो लोगों को अपनी लगने लगी है. और जमीन के बदले पैसे लेने की बात उन्ही के द्वारा फैलाई गई. गाँव गाँव में कई गुट बने पड़े हैं, कुछ कहते हैं की हम भी पैसा ले लेते हैं फिर लड़ेंगे. कुछ कह रहे हैं की सरकार के द्वारा आहूत ग्राम सभा नहीं होने देंगे. कुछ कहते हैं की यदि हमें पुनर्वास के लिए जमीन मिलती है तो अपनी जमीन डैम के लिए दे देंगे आदि आदि. यही वे गाँव हैं जहाँ एक समय एक इंच जमीन नहीं देने की लोग बात करते थे, सिर्फ बात ही नहीं अपने जमीन के लिए सरकार की सेनाओं से भी लोहा लेकर कुजू डैम को नहीं बनने दिए. आज इस सोच में परिवर्तन के लिए पूर्ण रूप से RSS जिम्मेदार लग रही है. चूँकि उनके गुर्गे हर गाँव में उपरोक्त विवाद पैदा कर रहे हैं और बहुसंख्यक हो समाज अल्पसंख्यक पेयायें एवं गोप के कारण अपनी जमीन देने के फैसलों के इर्द गिर्द घूमने पर मजबूर हो रहे हैं. पढ़े लिखे लोग अपने अपने नौकरी में व्यस्त हैं, उम्मीद करते हैं कि वे जब वापस अपने घर आएंगे, तो उनका घर पानी के नीचे डूब चूका होगा, तो भी वे खुश ही होंगे, चूँकि वे तो नौकर हैं, अपने मालिक (सरकार)के खिलाफ कैसे कोई बात करेंगे. १९८० के दशक में गंगा राम कलुन्दिया को पुलिस कि गोली से मार डाला गया था. यदि किसी को सर में एक गोली मार दी जाए तो वह मर जायेगा, लेकिन उस समय गंगा राम कलुन्दिया को जिस बेरहमी से पहले तो जांघ में गोली मारी गई फिर गाडी में घसीट कर ले जाया गया और जब गाँव वालों को उसका शव दिया गया तो उनके शारीर में एक छड, और गोलियों के छर्रे मिले थे. एक जघन्य हत्या के पीछे लोगों में आतंक फैलाना था और उसी आतंक का सहारा लेकर १०-१२ गाँव के लोगों को जो उस समय डर के मारे रात में गाँव में एक जगह सोते थे, को जबरन ट्रकों में भर-भर कर स्वर्णरेखा कार्यालय ले जाया जाता था और जबरन पैसे थमाए गए थे. उस पैसे से कितने ही लोगों के जीवन को गर्त में धकेल दिया, यह भी अध्ययन करने कि बात है. यहाँ कि स्थिति से तो यही लगता है कि अब या तो हो समाज एकजुट हो जाए या पूरा आदिवासी समाज एकजुट होकर विस्थापन का विरोध करे तब बात बन सकती है.

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