भ्रष्टाचार एवं कुशासन के कारण अनुसूचित क्षेत्रों(आदिवासी इलाकों) में नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. ऐसे हालत क्यों बने? अगर देश की शासन व्यवस्था ठीक होती, आदिवासी/पिछड़े क्षेत्रों का विकास होता, लोगों को सामाजिक-आर्थिक न्याय मिलता और आदिवासियों के हितों की रक्षा की जाती तो देश में ऐसे हालत नही बनते. यहाँ यह याद दिलाना उचित होगा की संविधान के अनुच्छेद २४४ के तहत भारत के ९ राज्यों-आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा हिमाचल प्रदेश में आदिवासियों के सुशासन व आर्थिक विकास के लिए प्रावधान किया गया है. देश के कुल क्षेत्रफल का करीब १७ प्रतिशत क्षेत्र जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए आरक्षित है. अनुसूचित क्षेत्र बहुमूल्य खनिज व प्राकृतिक सम्पदा के खजाने हैं. इन पर आदिवासियों का संवैधानिक अधिकार है.लेकिन सरकार की मिलीभगत से इन क्षेत्रों में खनिज सम्पदा व वन सम्पदा की अँधा धुंध लूट हो रही है. केंद्र एवं राज्य सरकारों ने संविधान के अनुच्छेद २४४ तथा १९(५) को धत्ता बता कर झारखण्ड, छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में आदिवासियों की हजारों एकड़ भूमि खदानों, विशेष आर्थिक क्षेत्र व शहरीकरण के नाम पर अमीरों को लूटा दी गई है. आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को बर्बाद कर दिया गया है. अनुसूचित क्षेत्र अब सरकारी निति व नियति में खोट के कारण शोषण, कुशासन, व भ्रष्टाचार के जीते जागते उदहारण बन का रह गए हैं. इसी वजह से इन क्षेत्रों में नक्सलवाद व माओवाद का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. नक्सलवाद वास्तव में कानून-व्यवस्था से ज्यादा सामाजिक व आर्थिक अन्याय से जुडी समस्या है. इस बात को ध्यान में रख कर इसका समाधान ढूँढना होगा. "दूर रहो और दूर करो" की गलत नीति को छोड़ कर आदिवासियों को अपनी शर्तों पर विकास का मौका देना होगा. उनकी पारंपरिक संस्थाओं एवं संस्कृति का सम्मान करना होगा. इनके नेतृत्व को कमजोर व बाधित करने के बजे प्रोत्साहित करना होगा. गोली के बजाए बातचीत से समस्या का समाधान करना होगा. आदिवासी अच्छी तरह समझ गए हैं की उनकी अर्थव्यवस्था व संस्कृति की बर्बादी के लिए केवल सरकार ही जिम्मेदार है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कुछ महत्वपूर्व फैसले दिए हैं १- १९८८ का p.rami reddy मामला, २- १९६९ का राम कृपाल भगत तथा ३- १९९७ का समता जजमेंट प्रमुख हैं. इनमे आदिवासियों की भूमि व खनिज सम्पदा सम्बन्धी अधिकारों को सुरक्षा के बारे में कई महत्वपूर्व निर्देश दिए गए हैं. अब सवाल उठता है की इन फैसलों के अनुसार जनजातियों के भूमि व खनिज सम्बन्धी अधिकारों की रक्षा क्यों नहीं की गई? यह बड़े दुःख की बात है की आदिवासी इलाकों में विकास व प्रशासनिक सुधार के लिए बने पेसा एक्ट १९९६, वनाधिकार अधिनियम २००६ आदि भी लागू नहीं हुआ है. ये सब तथ्य केंद्र व राज्य सरकार की निष्क्रियता तथा नियति में खोट को साफ दर्शाते हैं. सरकार आदिवासियों को परेशान कर अनुसूचित क्षेत्रों से भागना चाहती है, जिससे यहाँ आदिवासियों की जनसँख्या कम होने पर इनको सामान्य क्षेत्र घोषित किया जा सके और इनकी जमीन व खनिज सम्पदा पर कब्ज़ा किया जा सके. वैसे तो आदिवासियों की सामुदायिक व्यवस्था व संस्कृति बहुत मजबूत होती है. इसको अंग्रेज भी नहीं तोड़ पाए. लेकिन आजादी के बाद सरकार ने आदिवासियों की इस व्यवस्था को तोड़ने तथा उनको बेघर करने के कई तरीके अपनाए. विकास की आड़ में लाखों लोगों की उपजाऊ जमीन छीन ली गई. औद्योगीकरण, शहरीकरण, और बड़ी परियोजनाओं के लिए आदिवासी अपनी पुस्तैनी जमीन खोकर खाक में मिल गए. और बाहरी आबादी को सुनियोजित साजिश के तहत बसाया गया. इससे सामाजिक तनाव बढ़ा है. अब हालत इतने विगड़ गए हैं की जो आदिवासी हजारों साल से अपनी जमीन से जुड़े थे वे अब बेरोजगारी और भुखमरी से अपने क्षेत्रों से पलायन कर रहे हैं. कई क्षेत्रों में औद्योगिक व अन्य मुख्य धारा के विकास परियोजनाओं से बड़ी संख्या में विस्थापित आदिवासी बेघर व भिखारी बन कर घुमक्कड़ जिंदगी जी रहे हैं. कई बहन बेटियां अपने समाज से टूट कर दूर शहरों में आया/नौकरानी का काम कर रही हैं तथा आदमी रिक्शा व रेड़ी खींच रहे हैं. इनमे हजारों महिलाएं मजबूरी में असुरक्षा के वातावरण में शहरी घरों में काम करके पेड़ पाल रही है.
अब आदिवासी विकास की नीति में सुधार की गुन्जईस में हैं. कृषि, वन, तथा खनिजों को गैर आदिवासियों को लुटाने के बजाए इनके सही प्रबंधन में आदिवासियों को सहयोगी बनाना होगा. इससे इनकी आर्थिक हालात को सुधार जा सकता है. आर्थिक विकास से नक्सलवाद पर काबू पाने में मदद मिलेगी. अभी तक नक्सलवाद को कानून व्यवस्था से जुडी समस्या के रूप में देखा गया है. इस तरह की कार्य योजना अभी तक सफल नहीं रही है. नक्सलवाद वास्तव में सामाजिक व आर्थिक अन्याय की पैदाईश है. इसका समाधान गोली के बजाए आर्थिक विकास व मत पेटी से आसान होगा. इस बारे में रणनीति बनाने के लिए आदिवासियों से गहन विचार करने की आवश्यकता है.
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