"असर" ho professionals का गाँव में

हो प्रोफेसनल्स की ओर से हो समाज के लिए जो प्रयास हुआ वह वास्तव में आँख खोलने वाला था. गाँव में लोगों ने पहली बार तथाकथित पढ़े लिखे लोगों को अपनी नौकरी से समय निकाल कर अपने गाँव समाज का हाल चाल पूछते हुए देखा. गाँव के लोग यही जानते थे की पढ़े लिखे लोग छुट्टियों में सिर्फ घर आते हैं. उनका गाँव में यदि किसी का निधन हो जाता हो, या कोई ख़ुशी का पल हो शायद ही पढ़े लिखे लोग दस्तूर को पूरा करते हों. लेकिन इस समस्या की घड़ी में लखीन्द्र तियु, राइमूल बांडरा, संजीव बिरुली, सोमनाथ पड़ेया, नजीर सुंडी, सनातन हांसदा बागुन जारिका गीत संवैया ने जिस तरह का साहसिक कदम उठा कर समाज को जागरूक करने का काम किया वाकई काबिले तारीफ है. वास्तव में कुजू डैम बनने से सिर्फ जमीन का विस्थापन नहीं हो रहा है, हमारे धर्म-दस्तूर का, संस्कृति का, भाषा का, समाज का भी विस्थापन हो रहा है. इस पर पूरे हो समाज को आगे आकर सोचने की जरुरत है. एक बार यह विस्थापन यदि हो जाए तो आगे भी यह समाज विस्थापित होता रहेगा. जिस तरह हो प्रोफेसनल्स ने मोर्चा संभाल कर अग्रिम पंक्ति से लोगों को अपने हक़ और अधिकारों की जानकारी दिए वह हो समाज हमेशा याद रखेगा. इतना ही नहीं एक गाँव में तो एक बुजुर्ग ने यहाँ तक कहा की "अपे तो आलेय सिन्ह्वोंगा लेका पे हुजुआकाना, होरा पे उदुबले ताना". कई भावुक पल भी आए, लेकिन जिन गाँव में डैम बनाने को लेकर हाँ और ना दोनों में मत थे उन्हीं गाँव को अपने मिशन में रखने का जोखिम भरा कदम उठाया गया. अकेले जाने के बाद कारवां के बढ़ने से ये तो साबित हो गया की हो प्रोफेसनल्स का कदम स्वागत योग्य था और समाज उनके आने का बेसब्री से इन्तजार कर रहा था. पढ़े लिखे लोगों का गाँव आकर लोगों के बीच इस तरह घूमना और जागरूक करना निसंदेह एक इतिहासिक कदम है, लेकिन मैं यह उम्मीद करूँगा कि इतिहास अपने इस कदम को बार बार दोहराए।

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