आदिवासी हो लोगों के लिए लिखा गया इतिहास जहाँ संदिग्ध, विवादग्रस्त,
पूर्वाग्रह, और द्वेष से दूषित है, वहीँ समाज की सांस्कृतिक परम्पराएँ और औधारनाएं
काल पटल पर ऐसे दस्तावेज हैं, जो अनश्वर और शाश्वत हैं। तो इन्हीं
सांस्कृतिक परम्पराओं एवं प्रकृति पर समझ के आधार पर पुन: नए सिरे से हमें
हो समाज का इतिहास लिखने कि आवश्यकता है. आखिर ऐसी जरुरत क्यों पड़ी?? हमने
लोगों से या किताबों में अब तक यही सुना और पढ़ा है कि हम आदिवासियों को कभी
सिन्धु
घाटी से, हिमालय से, गंगा नदी होते हुए आर्यों ने खदेड़ा है. हमेशा यही
किताबों के माध्यम से बताने का प्रयास किया जाता रहा है कि आदिवासियों को
भगा-भगा कर यहाँ तक लाया गया है. सोचिये आज तक हम यही पढ़ रहे हैं और पढ़ कर
पढ़ा लिखा व्यक्ति समझ रहे हैं. क्या यह सही है? शायद नहीं. क्यों?
हम जानते हैं की आदिवासी प्रकृति के सबसे नजदीक हैं, प्रकृति को अच्छी
तरह जानते हैं. क्योंकि वे प्रकृति की उपासना करते हैं और प्रकृति के
अनुकूल चलते हैं। 2004 के सुनामी में भारत सरकार के करोड़ों रूपए के सेट अप
में लगे मौसम विभाग और उसमे बैठे वैज्ञानिकों के ज्ञान के बावजूद हजारों
लोगों को मरने से नहीं बचाया जा सका था लेकिन समुद्र के बीच में अवस्थित
टापू में रह रहे झारवा आदिवासियों में कोई नहीं मरता है। अब प्रश्न उठता है
की विद्वान कौन है प्रकृति के बीच रहता झारवा आदिवासी या करोड़ों के सेट अप
में बैठा वैज्ञानिक? स्वाभाविक उत्तर है की झारवा आदिवासी, चूँकि उसे
प्रकृति की गतिविधि की जानकारी पहले ही हो गई और वे बच गए। आधुनिक विज्ञान
उसके सामने फेल हो गया। इसी तरह हमारे पूर्वजों को भी प्रकृति की ऐसी ही
समझ थी और वे लोग प्राकृतिक रूप से आपदाओं वाले जगहों को जान-बूझ कर समय
रहते ही छोड़ दिया था और पृथ्वी के सबसे सुरक्षित जगहों में अपना रहवास बनाए
रखा। जब प्राकृतिक आपदाओं वाले जगहों को हमारे पूर्वजों ने छोड़ा तो खाली
जगहों को देख कर आर्य लोग उन जगहों में बस गए। आज जब सिन्धु घाटी क्षेत्र
में भूकम्प से तबाही मचती है तो कौन मरता है? आदिवासी तो नहीं मरता। जम्मू
और कश्मीर में बादल फटने से कौन मरता है?आदिवासी तो नहीं मरता । गंगा में
बाढ़ से कौन तबाह होता है? आदिवासी तो नहीं होता। अब यहाँ फिर प्रश्न उठता
है की विद्वान कौन? आदिवासी या आर्य? आदिवासी इस पृथ्वी पर जहाँ भी रहता है
वह इस पृथ्वी का सबसे सुरक्षित जगह है। भूकंप, तूफान, सुनामी, बादल
फटना, बाढ़ आदि उनके क्षेत्रों में नहीं आता है, और अगर ऐसी बात हो भी जाए
तो आदिवासियों को इसकी जानकारी विभिन्न जीव जंतुओं
एवं प्रकृति से हो जाती है. यानि वे तो मुर्ख लोग थे जो आदिवासियों के
सुरक्षित जगहों में जाने एवं खाली
करने के बाद उन जगहों में रहने लगे. उन इलाकों में आज भी सबसे ज्यादा
प्रकृति आपदा के
लोग शिकार हो रहे हैं. पृथ्वी पर सबसे सुरक्षित जगहों के मालिक आदिवासी आज
सबसे ज्यादा प्राकृतिक सम्पदा के मालिक हैं और उन्हीं प्राकृतिक सम्पदा की
लूट को अंजाम देने के लिए आदिवासियों को अलग-अलग तरीकों से शोषित,
प्रताड़ित, एवं डराया जा रहा है, ताकि वे जगहों को खाली कर भाग जाएँ. लेकिन
प्रकृति के उपासक एवं प्रकृति को मानने वाले आदिवासी जान देकर भी अपने जल,
जंगल और जमीन यानि दुनिया का सबसे सुरक्षित जगह को इसीलिए नहीं छोड़ना
चाहता है, चूंकि यह जगह प्राकृतिक रूप से भी सबसे सुरक्षित जगह है. वास्तव
में मामला यह है लेकिन जो इतिहास अब तक हमें पढ़ाया जाता रहा है वह कुछ और
ही कहता
है. अभी भी अगर हर आदिवासी प्राकृतिक रूप से सोचना शुरू करे, उसकी उपासना
एवं उसके अनुकूल चलने का प्रण ले तो इतिहास को दुबारा अपने तरीके से लिखा
जा सकता है। सिर्फ एक सोच की जरुरत है ..............
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