झारखण्ड के आदिवासियों के ४७
अलग अलग धर्म नहीं हैं वरन एक साजिश के तहत ४७ अलग अलग धर्मों में
उन्हें लिखा गया है. सीधी बात यह है की कोई हिन्दू यदि राम की पूजा करता है
तो क्या उसका धर्म कॉलम में राम लिखा जाता है? कोई यदि हनुमान की पूजा
करता है तो क्या उसके धर्म कॉलम में हनुमान लिखा जाता है? फिर जब आदिवासी
हो समाज के लोग एक सवाल के जवाब में यदि ये बोलते हैं की वे मरंग्वोंगा की
पूजा भी करते हैं तो क्या यह उसका धर्म हो गया? दियुरी, हो, बुरुवोंगा आदि
का धर्म कॉलम में लिखा जाना एक साजिश है. यह इन आंकड़ों से स्पष्ट हो गया
है. ताकि आदिवासी अपनी कोई विशेष पहचान न बना सके, न लिख सके. बंटा हुआ
आदिवासी समाज कभी भी आवाज करेगा तो उसे अपना वाजिब हक नहीं मिलेगा, यही सोच
कर ऐसा किया गया है. यह तभी ऐसा हुआ जब जनगणना करने वाले दिकु थे और
उन्हें खास ट्रेनिंग के तहत आदिवासियों के यहाँ जनगणना के लिए भेजा गया था.
यहीं पर यदि हमें धर्म कोड सरना मिला होता तो देश की ये सारी जनसँख्या सरना
में दर्ज होती और आंकड़ा ५ करोड़ से ऊपर होता. आदिवासी जल, जंगल और जमीन
के मालिक हैं. उन्हें शुरुआत से ही कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं भाषा के
नाम पर न जाने क्या क्या नाम पर बाँट दिया गया है. हद तो तब हो रही है जब
आदिवासी भी खुद बंट रहे हैं. जबकि धर्म के नाम पर तो एकजुट एवं जागरूक होना
था लेकिन कौन सा ऐसा कारण रहा जिस कारण आदिवासी धर्म के नाम पर भी एकजुट
नहीं हुआ. इस पर भी मंथन होना चाहिए और जो भी चूक कालांतर में हुआ उसे दूर
करते हुए सरना कोड की मांग में आन्दोलन में कूद जाना चाहिए. अपने दुश्मनों
को पहचानने के लिए भी एक आन्दोलन होना चाहिए ताकि हमें किससे सतर्क रहना है
और किसके साथ आगे मिलकर लड़ना है यह पता चल सके. फूट डालो और शासन करो यही
उनकी नीति है न! एकजुट हो जाओ और उन पर शासन करो की नीति पर अब हमें काम
करना ही होगा.
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