सेवा में,
महामहिम राज्यपाल,
झारखण्ड सरकार राँची .
विषय : संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत प्रशासित एवं नियंत्रित अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संविधानिक सुरक्षा हेतु जमीन के अंतरण पर पूर्णत: रोक लगाने के सम्बन्ध में।
महामहिम राज्यपाल,
झारखण्ड सरकार राँची .
विषय : संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत प्रशासित एवं नियंत्रित अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संविधानिक सुरक्षा हेतु जमीन के अंतरण पर पूर्णत: रोक लगाने के सम्बन्ध में।
सन्दर्भ : संविधान की पांचवी अनुसूची तथा माननीय उच्चतम न्यायलय द्वारा दिए गए इतिहासिक समता निर्णय 1997, का राज्य सरकार तथा प्रशासनिक तंत्र द्वारा घोर उल्लंघन।
आदरणीय महोदय,
हम आदिवासियों ने उपर्युक्त संविधानिक संरक्षण के बावजूद जल, जंगल, और जमीन से विस्थापित होकर भयानक शोषण एवं अत्याचार सहन किया है। हम लोग दुखी हैं, निराश हैं और इसकी वजह यह है की पिछले 65 सालों में किसी भी सरकार की तरफ से वास्तविक एवं अर्थपूर्ण समाधान हमारी संविधानिक सुरक्षा की खातिर नहीं उठाया गया। उपरोक्त के सन्दर्भ में ध्यान आकृष्ट करते हुए हमारा कहना है : -
1. कि संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत अपवादों एवं उपन्तारणों के अधें रहते हुए अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण तथा भूमि के आबंटन एवं अंतरण के लिए विशेष उपबंध किये गए हैं, जिसके अलोक में इस अनुसूची के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य की प्रशासनिक शक्ति का विस्तार उनके अनुसूचित क्षेत्रों पर किया गया है। राज्य सरकार ने अपनी कार्यपालिका शक्ति का उपयोग करते हुए झारखण्ड राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों पर भी आदिवासी मूलवासियों के खूंटकट्टी जमीनों को सकड़ों बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों के साथ MOU पर हस्ताक्षर कर दांव पर लगाया गया है, जिसका अनुमोदन पांचवी अनुसूची के तहत गठित जनजाति सलाहकार परिषद् द्वारा भी नहीं कराया गया, जिसके फलस्वरूप उक्त संवैधानिक प्रावधानों का घोर उल्लंघन किया गया है।
2. कि अनुसूचित क्षेत्रों में शांति एवं सुशासन को भंग करने के निमित राज्य सरकार द्वारा स्वएं आदिवासियों को जमीन से विस्थापित करने सम्बन्धि नीति का निर्धारण करना आदिवासियों की अस्मिता एवं अस्तित्व को क्षति पहुँचाना है।
3. कि राज्य तथा सरकार के अस्तित्व में आने के पूर्व आदिवासियों की परंपरागत पैतृक भूमि प्रकृति प्रदत है, और इसीलिए आदिवासियों की भूमि अहस्तान्तारानीय है जो पीढ़ी दर पीढ़ी कूल में ही उत्रधिकारिता के आधार पर स्वत: हस्तांतरित होता रहता है, यानि परंपरागत रीति रिवाज के अनुसार जमीन पर व्यक्ति विशेष का स्वामित्व नहीं है, बल्कि गाँव समाज का है। राज्य अथवा सरकार द्वारा आदिवासियों को भूमि प्रदत नहीं किये जाने के आधार पर सिद्दंतात: सरकार द्वारा उनकी भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। राज्य के अस्तित्व में आने के उपरान्त सरकार द्वारा प्रदत जमीन का ही प्रशासन द्वारा नियामत: अधिग्रहण किया जाना चाहिए।
4.कि माननीय उच्चतम न्यायलय द्वारा दिए गए इतिहासिक समता निर्णय 1997 के अनुसार किसी भी कीमत में अनुसूचित क्षेत्रों में गैर आदिवासियों को खनन पट्टा या परियोजनाओं के लिए जमीन उपलब्ध नहीं किया जा सकता है, यहाँ तक की सरकारी निगमों/उपक्रमों को भी आदिवासियों की रैयती जमीन पर लीज बंदोबस्ती नहीं दी जा सकती है। क्या देशी-विदेशी बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, समता निर्णय में इंगित सरकारी निगमों से अपवाद या ऊपर हैं, जिनके लिए भूअधिग्रहण हेतु सरकार की सारी शक्ति लगा दी गयी है?
5. कि पंचायत उपबंध(अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार)अधिनियम 1996 की धारा 4(झ)के अनुसार परियोजनाओं हेतु भू-अर्जन के पूर्व ग्राम सभाओं से परामर्श किया जाना आवश्यक है, जिसका उल्लंघन करके अनगिनत गाँव को विस्थापित करने के उद्देश्य से उद्द्योग हेतु भू-अर्जन को सरकार द्वारा प्रतिष्ठा का विषय बना दिया गया है।
6. कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों के साथ अनगिनत एकरारनामा पर हस्ताक्षर होने के उपरांत सरकारी तंत्र द्वारा बारम्बार आश्वासन एवं वक्तव्य दिया जा रहा है कि औद्योगिक घरानों द्वारा कल कारखानों की स्थापना होने पर उचित मुवावजा सहित रोजगार एवं पुनर्वास ही सुविधा उपलब्ध करायी जाएगी, साथ की लोगों के जीवन स्तर में सुधार तथा क्षेत्र का सर्वांगीन विकास होगा। इन सरकारी वक्तव्यों में कितनी सत्यता है, इसका स्पष्ट प्रमाण या जमीनी सच्चाई नीचे उल्लेखित तथ्यों से स्वत: स्पष्ट होगा :
(क) स्वतंत्रता के बाद हमारी जमीन पर कल-कारखाने, खदानों, डैम परियोजनाओं तथा सेना के लिए फायरिंग रेंज आदि की लगातार स्थापना के फलस्वरूप हमारी आबादी पर दूरगामी परिणाम सामने आये हैं, तभी तो प्रत्येक 10 साल के अन्तराल में होने वाली जनगणना में हमारी आबादी 76 प्रतिशत से घटकर 2001 की जनगणना में 27%रह गयी है, और बड़े उद्द्योग स्थापित होने की स्थिति में हमारी आबादी लुप्त हो जाएगी।
(ख) परियोजनाओं के नाम पर सरकार द्वारा विस्थापित लाखों लोगों को अब तक मुआवजा का भुगतान नहीं किया गया है। Indian Social Institute , New Delhi के सर्वेक्षण के अनुसार झारखण्ड राज्य में सरकारी तथा गैर सरकारी परियोजनाओं से विस्थापित 6लाख आदिवासियों का पुनर्वास कही नहीं किया गया और वे कंगाली की स्थिति में दर-दर भटक रहे हैं। चलचित्र की तरह उक्त सच्चाई की मौजूदगी में सरकार का आश्वासन आदिवासियों के लिए एक क्रूर मजाक है।
(ग) इंडियन ब्यूरो ऑफ़ माइंस प्रतिवेदन 1974 के अनुसार कोल्हान प्रमंडल के अंतर्गत 40 छोटे बड़े कारखाने तथा 300 खदानों सहित 4 शहरों से बढ़कर आज 24 शहर हो गए। ऐसी परिस्थिति में यदि टाटा, बोकारो, HEC रांची और धनबाद जैसे एस्सार, मित्तल एवं जिंदल आदि कंपनियों के लिए महानगरी बनेंगी तो हमारी स्थिति बाद से बदतर हो जाएगी।
(घ) वर्ष 1907 तथा वर्ष 1946 में स्थापित क्रमश: टाटा एवं ACC झिंकपानी आदि कल-कारखानों में आदिवासियों और मूलवासी कामगारों की संख्या नगण्य है। हाथ कंगन को आरसी क्या - जैसे कहावत के अलोक में प्रस्तावित बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठाओं में विस्थापितों को सरकार द्वारा रोजगार की गारंटी देने सबंधी आश्वासन निराधार एवं अविश्वसनीय है।
(च) सरकारी प्रतिष्ठानों यथा - बोकारो, HEC हटिया, किरीबुरू, गुवा, तथा चिड़िया में जहाँ सरकारी आरक्षण नीति लागू है, फिर भी आदिवासियों को देय आरक्षण अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे में प्रस्तावित निजी प्रतिष्ठानों में जो सरकारी आरक्षण नीति से बाहर हैं, आदिवासियों को रोजगार देने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
उपरोक्त विन्दुओं से स्वत: स्पष्ट है कि परियोजनाओं एवं प्रतिष्ठानों के नाम पर आदिवासी/मूलवासियों को विस्थापित करो और उनके स्थान पर बाहरी आबादी बसाओ की जनविरोधी नीति को सरकार द्वारा जबरन लागू करना न्यायोचित नहीं है। सरकार की इस क्रूरतापूर्ण दमन नीति के चलते यह प्रमाणित हो गया है कि राष्ट्र के विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश होता आया है, हो रहा है और होगा, जिसके अलोक में अब तक प्राप्त कटु अनुभवों के आधार पर हमलोगों का अडिग फैसला है कि अपनी भूमि किसी भी हालत में आखिरी दम तक प्रतिष्ठानों के नाम पर अधिग्रहित नहीं होने देंगे। इस संबंध में कोई जोर जबरदस्ती करके हमें संघर्ष का रास्ता अपनाने के लिए बाध्य न किया जाये। इन विनाशकारी परिस्थितियों से आपको अवगत कराने तथा अविलम्ब निराकरण हेतु अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के तत्वावधान में पूर्वी सिंहभूम जिला अंतर्गत पोटका एवं सराइकेला खरसावाँ अंतर्गत राजनगर से 165 km की पदयात्रा पूरी कर आदिवासी मूलवासी आज दिनांक 10 नवम्बर 2012 को आदिवासी/मूलवासियों की इस महाधरना के माध्यम से यह ज्ञापन आपको समर्पित करते हुए आग्रह करते हैं कि : 1. झारखण्ड राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में भारतीय संविधान के तहत लोकतंत्र एवं स्वराज की स्थापना हेतु राज्यपाल महोदय लोग अधिसूचना द्वारा पांचवी अनुसूची के पारा 5(1) के तहत सामान्य कानूनों को अपवादों एवं उपान्त्रनों के अधीन रहते हुए आदिवासी सलाहकार परिषद् से परामर्श कर राष्ट्रपति महोदय से अनुमोदन कराने के बाद लागु नहीं करते हैं, तक तक लागू नहीं होगा - रामकृपाल भगत बनाम बिहार सरकार, सुप्रीम कोर्ट का फैसला 1969. अत: IPC 1860 एवं CRPC 1908 जैसे सामान्य कानूनों को अपवादों एवं उपान्त्रनों के अधीन रहते हुए अधिसूचना द्वारा लागू किये बिना हजारों आदिवासियों एवं मूलवासियों को अनुसूचित क्षेत्रों के बिभिन्न जेलों में बंद रखना असंविधानिक एवं मानवाधिकारों का हनन है। 30 सितम्बर 2012 को आपके जमशेदपुर आगमन पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के सदस्यों पर जो मामले दर्ज किये गए थे, उसे उपरोक्त के अलोक में अविलम्ब समाप्त किया जाये।
2. अनुसूचित क्षेत्र अंतर्गत पोटका प्रखंड में भूषण स्टील एंड पॉवर प्लांट के साथ झारखण्ड सरकार के MOU को रद्द किया जाये। पूर्वी सिंहभूम के खैरबानी में कचड़ा फेंकने के लिए ग्राम सभा की अनुमति के बिना कैसे भूमि अधिग्रहण की गई, इसे अविलम्ब रद्द किया जय।
3. उपरोक्त कई कारणों से कोल्हान के आदिवासी झारखण्ड के साथ अपना भविष्य नहीं देख पा रहे हैं, इसीलिए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारंपरिक व्यवस्था के अनुकूल कोल्हान को केंद्र शासित राज्य की मान्यता दी जाये।
4. नगड़ी मामले में संविधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए आदिवासी हित में अधिग्रहण को रद्द किया जाए एवं सामान्य कानून(अनुसूचित क्षेत्र में अवैध) के तहत जेल में बंद आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाए .
5. अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यपाल की लोक अधिसूचना के बिना एवं ग्राम सभा की अनुमति के बगैर सभी CRPF कैम्पों को हटाया जाये।
6. स्वर्णरेखा बहुद्देशिए परियोजना अंतर्गत विस्थापन जनित ईचा डैम को पूर्णत: रद्द किया जाये।
7. MMRD Act 1957, सम्पति अंतरण अधिनियम 1882, कोल वियरिंग एरिया एक़ुइजिशन एंड डेवलपमेंट एक्ट 1957 तथा भूमि अधिग्रहण कानून 1894, पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में लागु नहीं है, चूंकि राज्यपाल ने संविधान के अनुच्छेद 244(1) के पारा 5(1) द्वारा अथवा पारा 5(2) के तहत विनियम बना कर लागू नहीं किया है।
8. अनुसूचित क्षेत्रों में खनिज संपदा का लीज पट्टा आदिवासियों की सहकारिता समिति को ही दिया जाए (सुप्रीम कोर्ट के समता बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य फैसला)
9. आदिवासियों की विशेष पहचान 'सरना' को धर्म कोड के रूप में अविलम्ब मान्यता दिया जाये।
10. संविधानिक, सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक न्याय की गारंटियों के लिए पेसा कानून 1996, CNT act 1908, अनुसूचित जाति तथा जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 एवं अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासी(वन अधिकारों की मान्यता)अधिनियम 2006 को दृढ़ता पूर्वक लागू किया जाये।
11. आम आदमियों को पुलिस की परिशानी से बचाने के लिए परंपरागत स्वशासन एवं संस्थाएं/ग्रामीण अदालतों को तीन साल तक की सजा वाले क्रिमिनल व सिविल मामले की प्राथमिकी दर्ज करने तथा फैसला करने का अधिकार दिया जाये।
12. विश्वविध्यालय में स्नातकोत्तर विभाग खोलने के बाद मुख्य रूप से जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग में हो, मुंडा, संथाल, उराँव, खड़िया नागपुरी,खोरठा, पन्च परगनिया, कुरमाली भाषाओँ की पढाई चल रही है पर विभागाध्यक्ष एक ही है। इसे दुरुस्त करते हुए सभी भाषाओँ को विभागाध्यक्ष एवं सम्पूर्ण पद यथाशीघ्र दिया जाये।
संविधान की पांचवी अनुसूची में किये गए उपबंधों के तहत आप हमारे संविधानिक अभिभावक एवं संरक्षक हैं। हमें विश्वास है की आप संविधान प्रदत जिम्मेदारियों के आधार पर राष्ट्रिय विकास के नाम पर हमारा विनाश रोकेंगे।
धन्यवाद!
भवदीय
डॉ निर्मल मिंज
केन्द्रीय अध्यक्ष
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा
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