अब याचना नहीं रण होगा....

पोटका एवं राजनगर से अखिल भारतीय आदिवासी महासभा एवं राष्ट्रिय देशज पार्टी के नेतृत्व एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों के संयुक्त तत्वावधान में राजभवन तक की पैदल यात्रा पोटका में आदिवासी रीति रिवाज से पूजा पाट कर प्रारंभ हुआ। राजनगर से 50 लोगों का समूह पैदल मार्च के लिए निकला और पोटका से 150 से कुछ ज्यादा लोग पैदल यात्रा में शामिल हैं। उम्मीद से ज्यादा लोगों ने पोटका में समर्थन दिया। विभिन्न पार्टी एवं समाज के लोग आदिवासी/मूलवासी एकता जिंदाबाद, पांचवी अनुसूची हमारा संविधान है, अबुआ दिशुम रे अबुआ राज, जमीन का सौदा बर्दास्त नहीं, भूषण स्टील के दलालों होश में आओ, आदि नारों के साथ पूरे जोश एवं जुनून के साथ काफिला पोटका से निकला। गाँव गाँव में पदयात्रियों का स्वागत होने से अपने तय गंतव्य को पदयात्री समय पर पहुँच नहीं पा रहे हैं। हाता में राजनगर एवं पोटका दोनों तरफ से समूह के मिलने से पूरा हाता चौक नारों से गूंज उठा और हाता चौक कुछ देर के लिए बंद सा हो गया था। भूषण स्टील का MOU रद्द करने, कोल्हान को केंद्र शासित राज्य की मान्यता देने, कुजू डैम को रद्द करने, पांचवी अनुसूची को दृढ़ता पूर्वक लागू करने आदि के मकसद से यह समूह दिनांक 3 नवम्बर 2012 को जमशेदपुर शहर के मुख्य पथों से गुजरेगा। आदित्यपुर क्षेत्र में हवाई पट्टी का विरोध करने वाले गावों के लोग, CRPF कैम्प का विरोध करने वाले लोग, चांडिल डैम के विरोध में खड़े लोग और बुंडू से आदिवासी छात्र संघ के हजारों छात्र इस पदयात्रा से जुड़ जायेंगे। रांची के बाहरी किनारे में अवस्थित गाँव घाघरी में 9 नवम्बर 2012 को शाम तक पदयात्री पहुँच जायेंगे। वहां से 10 नवम्बर 2012 को 10-12 हजार लोगों का समूह राजभवन घेराव के लिए कूच करेगा। झारखण्ड के कोने-कोने एवं रांची के चारों दिशाओं से गाड़ियों में पांचवी अनुसूची क्षेत्र से आदिवासी मूलनिवासी उस दिन इस घेराव कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुँच रहे हैं। यह संख्या लाखों में हो ऐसा हम उम्मीद करते हैं ताकि पांचवी अनुसूची का मकसद हम पूरा कर सकें। हमने देश को देखा, बिहार देखा, और अब झारखण्ड देख रहे हैं क्या मिला? कांग्रेस देखा, भाजपा देखा, RJD देखा, क्या मिला। 40 % प्राकृतिक संपदा का मालिक इस पांचवी अनुसूची क्षेत्र का आदिवासी कहाँ है? iron ore के लूट में सरकार को 27 रूपए प्रति टन की royalty मिलती है, खदान से कच्चा माल निकालने आदि में 300 रूपए प्रति टन का खर्चा आता है। उसी लोहे को कंपनियां अंतराष्ट्रीय बाज़ार में 6000 रूपए प्रति टन के हिसाब से बेचती है। क्या यह सीधे लूट नहीं है? फिर यहाँ के आदिवासी की इस हालात के लिए जिम्मेदार कौन है? यह इन पूंजीपतियों, नौकरशाहों, और नेताओं के द्वारा, संविधानिक भ्रष्टाचार के कारण हो रहा है। इसे बदलना होगा। व्यवस्था परिवर्तन इसका हल है। इतने सालों में हमने सिर्फ याचना किया, लेकिन क्या मिला? इसीलिए अब revolt की बारी है। अब याचना नहीं रण होगा !! सामान्य कानून नहीं पांचवी अनुसूची का पालन करना होगा।

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