मानवाधिकार दिवस और हम ....

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को मानव अधिकारों की घोषणा की गई। जिसके लिए आज हम मानवाधिकार दिवस मनाते हैं। मानवाधिकार घोषणा पत्र में कुल तीस(30) घोषणा किये गए हैं। मानवाधिकारों को दो भागों में बाँटा गया है - पहली श्रेणी में जीवन, व्यक्तिगत आजादी, घूमने फिरने की आजादी, तथा राज्य के द्वारा कई प्रकार के हस्तक्षेपों से आजादी आदि आता है। दूसरी कोटि के अधिकारों में रोजगार का हक़ शिक्षा, एक खास जीवन स्तर, कपड़ा, मकान का हक़ आदि आता है। यह तो हुई मानवाधिकार दिवस की विशेष बातें परन्तु ध्यान से सोचें तो आज स्थिति यह है की साल में सिर्फ एक दिन मानवाधिकार दिवस के रूप में और शेष 364 दिन मानवाधिकार हनन दिवस के रूप में मनता है। इस अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था की ही यह विशेषता है की वह हम आदिवासियों को अपनी व्यवस्था को जनतांत्रिक एवं मानवीय मानने पर मजबूर किया जाता रहा है।  आदिवासियों पर अत्याचार एवं शोषण , किसानों की आत्महत्या, महिलाओं पर अत्याचार, बच्चों में कुपोषण, अशिक्षा आदि का नतीजा है की आज आदिवासी दिवस, किसान दिवस, महिला दिवस, शिक्षक दिवस, बाल दिवस, और न जाने कितने दिवस घोषित कर दिए जाते हैं। उसका नतीजा सिफर ही रहा है। उसी तरह आज मानवाधिकार दिवस की दशा है। रोज मानव अधिकार का हनन किया जा रहा है, खुद सरकार, ताकतवार एवं प्रतापी लोग ऐसा करते हैं, हम आदिवासी निरंतर मानव अधिकार से वंचित हैं, तब इस मानवाधिकार का क्या मतलब? सबसे पहले तो जीने का अधिकार मानव अधिकार है, इसी के तहत रोटी, कपड़ा और मकान का अधिकार मानव अधिकार है। शिक्षा, चिकित्सा, साहित्य आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ने की सुविधाओं को पाने का अवसर, समाज में आगे बढ़ने का सामान अधिकार मानवाधिकार के अंतर्गत आने चाहिए। परन्तु आज इस व्यवसायिक और मुनाफाखोर व्यवस्था ने मनुष्य को संसाधन बना दिया है। मानवाधिकार दिवस की प्रासंगिकता, महत्व और उद्देश्य को तब तक दिशा नहीं मिलेगी जब तक की मानवाधिकार कोर्ट का गठन नहीं हो जाता  तथा आयोग की अनुशंसा बाध्यकारी नहीं हो जाती। मानव के अधिकारों की शुरुआत बचपन से होती है और अंत मरने के पश्चात् ही हो पाती है।

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