हातु दुनुब (ग्राम सभा) ही आदिवासी सत्ता का केंद्र----

इस पृथ्वी पर आदिवासी करोड़ों वर्षों से रह रहे हैं। आदिवासियों ने प्रकृति को साफ करके इसे खेती लायक बनाया। और अपना जीवन यापन प्रकृति की गोद में लगातार करते आ रहे हैं। आधुनिक युग बमुश्किल 200 सालों का है। जब मुगल आए तो उन्होंने भारत में केंद्र सरकार पर कब्ज़ा किया। और देश से सिर्फ टैक्स वसूलने का काम किया। इसके लिए उन्होंने साहूकारों पर भरोसा किया। लेकिन आदिवासी इलाकों में साहूकारों को घुसने में सफलता नहीं मिली। उसी तरह जब अंग्रेज भारत में सत्ता में आए तो उन्होंने भी साहूकारों के मार्फ़त ही टैक्स उगाही का रास्ता चुना। उस समय भी वे आदिवासी इलाकों में सफल नहीं हुए। लेकिन जहाँ भी वे टैक्स impose करने में सफल हुए कूटनीति से अपने लिए सैकड़ों एकड़ जमीन भी हथिया लिया। आदिवासी इलाकों में विदेशियों के सफल नहीं होने का कारण आदिवासियों का सिर्फ अपनी भाषा जानना और उनकी भाषा नहीं जानना और जल जंगल जमीन से अपना अस्तित्व को देखना रहा है । जब साहूकार मालगुजारी देने की बात करते थे तो आदिवासी मालगुजारी क्या है हम नहीं जानते और यह जमीन हमने प्रकृति से लिया है वाली बात करते थे और अपनी जमीन नहीं देने के लिए काफी जिद्दी थे। इतिहासिक दृष्टि से भी 1800 के दशक तक ग्राम सभा के निर्णय पर ही गाँव चलता था। जो भी विदेशी भारत पर आक्रमण किया उन्होंने सिर्फ केंद्र सरकार पर कब्ज़ा किया। उन्होंने गाँव की व्यवस्था को नहीं छेड़ा। केंद्र सरकार में बैठ कर वो केवल गाँव से बसूलने वाला टैक्स कम या ज्यादा करते रहते थे। लेकिन गाँव की व्यवस्था को नहीं छेड़ा।
1830 में लार्ड मैट काल्फ़ जो की उस समय के कार्यकारी गवर्नर जेनरल हुए, वो लिखते हैं की भारत देश की बुनियाद यहाँ की ग्राम सभाएं हैं. यहाँ के लोग मिलते हैं और सारा गाँव निर्णय लेता है और उसी से गाँव चलता है। 1860 में अंग्रेजों ने इन ग्राम सभाओं को तोड़ने के लिए कानून बनाया। क्योंकि वो समझ गए थे की जब तक ग्राम सभाएं नहीं तोड़ी जाएँगी, तब तक अंग्रेजों की बुनियाद इस देश में नहीं टिकेगी। उन्होंने कानून बनाकर कलेक्टर राज कायम किया। सारे अधिकार जो पहले लोगों के पास थे, ग्राम सभाओं के पास थे, वो सारे अधिकार उनसे छीन कर एक अंग्रेज कलेक्टर को दे दिए गए। 1947 में दुर्भाग्य वश जनता के ग्राम सभाओं में जो अधिकार थे वो अधिकार नहीं लौटाए गए। केवल अंग्रेज कलेक्टर के जगह एक भारतीय कलेक्टर को बिठा दिया गया। बाकी सारी की सारी अंग्रेजी व्यवस्था हमने बरकरार रखी।
हो आदिवासियों के कोल्हान में भी अंग्रेज लोगों को बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। साहूकार भी सफल नहीं हुए। तब विलकिंसन के कुटनीतिक फांसे में कोल्हान के मानकी और मुंडा फंस गए। जिस जमीन पर हो आदिवासी करोड़ों वर्षों से अपने पूर्वजों के द्वारा प्रकृति से अर्जित जमीन पर रह रहे थे उसी जमीन के लिए विलकिंसन ने टैक्स उगाही मुंडा और मानकियों को अपना एजेंट बनाकर पूरा किया। और इस व्यवस्था के ऊपर एक आयुक्त और उपायुक्त बैठा दिया। जो न हो समाज की संस्कृति जानते हैं और न ही भाषा। कलेक्टर राज स्थापित होने के बाद मुंडा और मानकी अंग्रेजों के प्रति जवाबदेह हो गया और आजादी के बाद राज्य सरकार के। आज भी हम कहने के लिए विलकिंसन रुल की बात करते हैं पर उसके इतिहासिक पृष्ठभूमि एवं आदिवासी अधिकार पर अतिक्रमण को नहीं समझ पा रहे हैं। विलकिंसन रुल और हुकूक्नामा में सिर्फ टैक्स वसूली के लिए मानकी और मुंडाओं को काम सौंपा गया और वह भी अंग्रेज का एजेंट के रूप में न की हो समाज के सामाजिक व्यवस्था में ग्राम एवं इलाका के प्रधान के रूप में। उपरोख्त किसी भी दस्तावेज में यह नहीं लिखा गया है की मुंडा या मानकी ग्राम सभा के प्रधान हैं और ग्राम सभा के निर्णय उनकी अध्यक्षता में होंगे। मुंडा या मानकी के चयन में भी ग्राम सभा की कोई भूमिका नहीं है। हुकूक्नामा के अनुसार तो उपायुक्त ही मुंडा के लड़के को मुंडा का पट्टा देंगे। और बर्खास्तगी भी उपायुक्त के स्वाविवेक पर छोड़ा गया है, न की ग्राम सभा के निर्णय के आधार पर। बात साफ है यहाँ भी हमारी पारंपरिक हातु दुनुब को तोड़ने ने लिए यह व्यवस्था थोप दी गयी लेकिन इतने वर्षों बाद भी हम आज तक कुछ बोले नहीं। और प्रकृति से अर्जित जमीन पर टैक्स देकर भी खुश हैं। वास्तव में उपायुक्त और आयुक्त को भी आदिवासी इलाकों में नहीं होना चाहिए।

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