महाराष्ट्र के माणा आदिवासी, कोलम आदिवासी, कोल आदिवासी, और पारढी
आदिवासियों से मैं मिला। इन क्षेत्रों में अम्बेडकर एवं बहुजन समाज के
प्रति झुकाव और ब्राह्मण वादी व्यवस्था के खिलाफ एक आक्रोश है। जो देखा वह
इस प्रकार रहा -
मातृभाषा - मराठी ही बोलते हैं, अपनी सब भूल गए हैं या कुछेक बुजुर्ग बोल पा रहे थे। सब कह रहे थे पहले अपनी मातृभाषा में बात करते थे पर आज सब महाराष्ट्री भाषा ही बोलते हैं। क्यों का स्पष्ट जवाब नहीं मिला।
संस्कृति - कोई भी आदिवासी संस्कृति व्यवहार में नहीं है।
त्यौहार - हिन्दू त्योहारों को ही अपना त्योहार मानते हैं।
शादी - हिन्दू तौर तरीका अपनाते हैं, पर कुछ जगहों में सफेद मुर्गा की बलि भी दी जा रही है। कुछ जगहों पर दाहिने से बाएं अनुष्ठान पूरा करने की भी प्रथा है।
प्रकृति पर आस्था - शिकार करना, लकड़ी तोडना आदि के लिए प्रकृति पर विश्वास है पर आस्था की परिभाषा में बहुजन समाज एवं हिन्दू रीती विधि को ही इन्होंने अपना लिया है।
सर्टिफिकेट - caste सर्टिफिकेट 1 9 5 6 के राष्ट्रपतीय आदेश के तहत जारी हो रहे हैं। इसके अलावे उनके पास कोई अन्य दस्तूर जिन्दा नहीं है। मैंने उन्हें कहा की जल्दी से जल्दी भाषा और संस्कृति को जिन्दा कीजिए नहीं तो कागज का कोई जहाज बनाकर उड़ा दिया तो खैर नहीं साथ की कहा की समाज दस्तूर से चलता है न की कानून से, इसीलिए दस्तूर को जिन्दा करना भी जरुरी है।
याद कर कुछ बूढ़े लोगों ने बताया की पहले जनवरी फरवरी में एक त्योहार होता था, अप्रैल मई में एक त्योहार होता था, फसल लगाने से पहले और बाद में कुल चार त्योहार होते थे पर अब नहीं मानते हैं।
मरण संस्कार - हिन्दू रीती रिवाज से और कुछ लोग बौध रीती रिवाज से करते हैं।
कोल और कोलम आदिवासी - इन्होने अपना असली जगह मध्य प्रदेश का जंगली इलाका से पलायन कर महाराष्ट्र आने की बात कही। परन्तु तीन पीढ़ियों से महाराष्ट्र में रहने से यहाँ की संस्कृति में रच बस गए। मैंने उन्हें हंडिया के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा की मध्य प्रदेश में थे तो बनाते थे, पर यहाँ तो सामान नहीं मिलता है(रानू). भाषा कुछ कुछ उन्होंने बोले जो वास्तव में झारखंडी हो या मुंडारी से तो नहीं मिल रहा था।
सारांश में मैंने उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति को पुनर्जीवित करते हुए सरना धर्म कोड की राष्ट्रिय आन्दोलन में शामिल होने का न्योता दिया और कहा की यही आदिवासियों का एकमात्र मुख्य धारा है और एक सही रास्ता भी जिससे सभी आदिवासी एकसूत्र में एकजुट हो सकेंगे।
मातृभाषा - मराठी ही बोलते हैं, अपनी सब भूल गए हैं या कुछेक बुजुर्ग बोल पा रहे थे। सब कह रहे थे पहले अपनी मातृभाषा में बात करते थे पर आज सब महाराष्ट्री भाषा ही बोलते हैं। क्यों का स्पष्ट जवाब नहीं मिला।
संस्कृति - कोई भी आदिवासी संस्कृति व्यवहार में नहीं है।
त्यौहार - हिन्दू त्योहारों को ही अपना त्योहार मानते हैं।
शादी - हिन्दू तौर तरीका अपनाते हैं, पर कुछ जगहों में सफेद मुर्गा की बलि भी दी जा रही है। कुछ जगहों पर दाहिने से बाएं अनुष्ठान पूरा करने की भी प्रथा है।
प्रकृति पर आस्था - शिकार करना, लकड़ी तोडना आदि के लिए प्रकृति पर विश्वास है पर आस्था की परिभाषा में बहुजन समाज एवं हिन्दू रीती विधि को ही इन्होंने अपना लिया है।
सर्टिफिकेट - caste सर्टिफिकेट 1 9 5 6 के राष्ट्रपतीय आदेश के तहत जारी हो रहे हैं। इसके अलावे उनके पास कोई अन्य दस्तूर जिन्दा नहीं है। मैंने उन्हें कहा की जल्दी से जल्दी भाषा और संस्कृति को जिन्दा कीजिए नहीं तो कागज का कोई जहाज बनाकर उड़ा दिया तो खैर नहीं साथ की कहा की समाज दस्तूर से चलता है न की कानून से, इसीलिए दस्तूर को जिन्दा करना भी जरुरी है।
याद कर कुछ बूढ़े लोगों ने बताया की पहले जनवरी फरवरी में एक त्योहार होता था, अप्रैल मई में एक त्योहार होता था, फसल लगाने से पहले और बाद में कुल चार त्योहार होते थे पर अब नहीं मानते हैं।
मरण संस्कार - हिन्दू रीती रिवाज से और कुछ लोग बौध रीती रिवाज से करते हैं।
कोल और कोलम आदिवासी - इन्होने अपना असली जगह मध्य प्रदेश का जंगली इलाका से पलायन कर महाराष्ट्र आने की बात कही। परन्तु तीन पीढ़ियों से महाराष्ट्र में रहने से यहाँ की संस्कृति में रच बस गए। मैंने उन्हें हंडिया के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा की मध्य प्रदेश में थे तो बनाते थे, पर यहाँ तो सामान नहीं मिलता है(रानू). भाषा कुछ कुछ उन्होंने बोले जो वास्तव में झारखंडी हो या मुंडारी से तो नहीं मिल रहा था।
सारांश में मैंने उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति को पुनर्जीवित करते हुए सरना धर्म कोड की राष्ट्रिय आन्दोलन में शामिल होने का न्योता दिया और कहा की यही आदिवासियों का एकमात्र मुख्य धारा है और एक सही रास्ता भी जिससे सभी आदिवासी एकसूत्र में एकजुट हो सकेंगे।
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