छतीसगढ़ में आदिवासी संस्कृति

रायपुर से करीब ४५० कि मी दंतेवाड़ा से भी आगे सुकमा जिला में बचेली गाँव आता है। यहीं पर NMDC का iron ore mines है। इस township के अगल बगल बीहड़ जंगल है और ५ - ७ कि मी की दूरी पर एक गाँव होता है। पहले बस्तर के रूप में आदिवासियों का एकमात्र भूभाग गोंडवाना भूभाग के रूप में जाना जाता था। आदिवासी एकजुट होकर आवाज उठा न सके इसके लिए बस्तर को ७ जिलों में बांटा गया। लोग अपनी मातृभाषा गोंडी ही बोल पाते हैं, हिन्दी भी नहीं जानते। इसका कारण है - वहां घर घर में लोग commuinst पार्टी का झंडा लगा कर रखते हैं। उनका कहना है की इससे पुलिस उन्हें नक्सल कह कर परेशान नहीं करती है। और इस सुरक्षा के लिए commuist पार्टी ने गाँव के लोगों को पढने से मना कर रखा है। साथ ही जब सरकारी सुविधा का चापाकल गाँव में लगता है तो कम्युनिस्ट लोग उसे तोड़ देते हैं। पूरा गाँव चुएँ के पानी पर ही निर्भर करता है। स्कूल नहीं चलने दिया जाता है। ५ से १५ घरों के समूह को पारा(गाँव का बस्ती) कहा जाता है और कम्युनिस्ट लोगों ने यह नियम बना रखा है की एक पारा से दूसरे पारा के बीच कम से कम २-३ कि मी का फासला जरुरी है। और ५-७ कि मी की दूरी पर ही गाँव बस सकता है। इस के पीछे यह कहा जाता है कि यदि एक गाँव में पूरे गाँव वाले एक जगह और एकजुट रहेंगे तो कम्युनिस्ट विचारधारा का विरोध करेंगे।
संस्कृति - आदिवासी संस्कृति का पालन होता है। गाँव के लोग प्रकृति (वहां बूड़ा देव एवं देवी के नाम से पुकारा जाता है) की पूजा उपासना ही करते हैं।
कांग्रेस के शासन में धर्मान्तरण पर जोर दिया जाता था, जिस कारण आदिवासियों में खासा आक्रोश देखा गया।
भाजपा ने आदिवासियों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है, तथा आरएसएस के कार्यक्रम को बढ़ावा देती है।
सामाजिक नेतृत्व नहीं है।
कम्युनिस्ट की रैली में सैकड़ों कि मी पैदल चल कर अपनी भागीदारी देते हैं।
कांग्रेस और भाजपा की रैली में गाड़ियों से आदिवासियों को जगदलपुर तक करीब १०० कि मी लाया जाता है, लेकिन वापस नहीं ले जाया जाता, लोग वहां से पैदल ही अपने घर वापस लौटते हैं।
गाँव में जब कोई गाय मरती है तो गाँव वाले उसे खा जाते हैं, सूअर भी उनका मुख्य मांसाहारी भोजन है।
कोई भी काम करने से पहले मुर्गा की बलि देने का प्रचलन है।
पेड़ से निकलने वाला सल्फी इस क्षेत्र का खास पेय है, इसके अलावे महुआ का दारू प्रचलन में है।
अन्य बहुत सी संस्कृतियाँ झारखण्ड के आदिवासी संस्कृति से मिलती है।
चूँकि ये लोग हिंदी भी नहीं बोलते इसीलिए जनगणना जैसे कामों में जानकारी के आभाव में हिन्दू में दर्ज हो रहे हैं, जो लोग शहरी क्षेत्र के पास रहते हैं उन्होंने गोंडी धर्म(586723, जनगणना 2001 ) लिखाया है।
सारांश - छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने अपना धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान को बचाया तो हुआ है, परन्तु सामाजिक नेतृत्व की कमी से राजनितिक पार्टियों के वोट बैंक मात्र रह गए हैं। बाहरी दुनिया से लगभग बेखबर अपना जीवन जी रहे हैं, उन तक पहुँच बनाना और मिलकर आदिवासी एकता दिखाने से छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्र को बचाया जा सकता है। रायपुर में पूर्व IAS एस आर नेताम से भेंट हुई, मैंने सलाह दिया की आप सब सांस्कृतिक अतिक्रमण पर गोष्ठी/सम्मलेन रखिये और ये पता लगाने की कोशिश कीजिय की वास्तव में गोंडी संस्कृति (आदिवासी) क्या है और इस पर कितना और क्या क्या अतिक्रमण हुआ है। एक बार यह चिन्हित हो जाए तो सभी गोंड आदिवासियों को धार्मिक एवं सांस्कृतिक आधार पर एकजुट करने में सहूलियत होगी। फिर राष्ट्रिय स्तर पर सरना कोड की लड़ाई में भी शरीक हो सकेंगे। चूँकि सरना वास्तव में आदिवासी पहचान की लड़ाई है। सरना यानि आदिवासी।

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