पत्थरगड़ी रूढ़ी प्रथा है या नहीं....



आदिवासी जीवन पद्दति में रूढ़ी या प्रथा जीवन जीने के क्रम में प्रकृति से सीखे हुए संस्कार को मानते हैं. रूढ़ी या प्रथाएं अनश्वर हैं, जो जन्म से लेकर मृत्यु के बाद तक प्रकृति के साथ चलते रहते हैं. ये अलग बात है कि आज रूढ़ी या प्रथाएं कृत्रिम हो गई हैं, क्योंकि हमने प्रकृति को छोड़ दिया है. आदिवासी मुंडा/हो समाज में मृत्यु उपरांत मृत शरीर को दफनाने के बाद ऊपर से पत्थर रखने का रिवाज है. अस्वाभाविक मौत यानि दुर्घटना/बिजली गिरने/सांफ डसने आदि पर घर के शमसान में नहीं दफनाकर कर अन्यत्र दफनाया जाता है, वहां पहचान के लिए सिराहने पर एक पत्थर को खड़ा करके लोग गाड़ देते हैं. इतना अकसर परम्परा में चल रहा है.
लेकिन विशेष परिस्थिति में विशेष व्यक्ति/विशेष पहचान/इतिहासिक/पारम्परिक पहचान के लिए भी खड़ा पत्थर गाड़ा जाता है. अंग्रेजों ने जब मुंडाओं से अपनी जमीन की मालकियत साबित करने लिए पूछा तो मुंडाओं ने ‘ससन दिरी’(शव दफनाकर ऊपर रखने वाला पत्थर) ही उठाकर उनके यहाँ पहुंचे...ऐसी बातें समाज में प्रचलित है.
यानि पत्थरगड़ी आदिवासी समाज में परम्पराओं से है. पत्थर में लिखने की परम्परा हालिया घटना है.
रूढ़ी या प्रथा बच्चे के पेट में रहने पर माँ द्वारा किस चीज को लांगना है या नहीं, नदी पार करना है या नहीं, क्या खाया जाय या नहीं आदि बहुत सारी चीजों से गुजरते हुए मृत शरीर के अनुष्ठान तक हैं. आज के परिदृश्य में देखें तो कितनों ने अपना नाम पारम्परिक तरीके से रखा है, तो हम पाएंगे शायद ही 40-50% लोगों के अलावे किसी ने भी अपना नामकरण तक रूढ़ी प्रथा के अनुसार नहीं रखा होगा. रूढ़ी पारंपरिक ग्राम सभा में लिए गए निर्णय से नहीं, कालान्तर में जीवन जीने के क्रम में सीखे गए संस्कारों से तय होता है. रूढ़ियों के पालन के लिए ग्राम सभा नहीं बैठती, वह स्वत: समाज में अनुपालित होती है, नहीं होने पर वह स्वत: समाज से बाहर समझा/माना जाता था, आज नहीं है.
पत्थर में संविधान की या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को अंकित कर लिखना गलत तो नहीं है, लेकिन वह पारम्परिक नहीं कहा जा सकता और ना ही रूढ़िगत. ऐसा कहना रूढ़ी/प्रथा/परम्परा का अपमान होगा.

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