गांव का आदिवासी दोनों तरफ से पिस रहा है। जब किसी भी चीज के अंजाम तक पहुंचने की पूर्ण जानकारी न हो, और आप जोश में आकर कुछ कर जाते हैं, तब स्थिति विकट होगी। आज आदिवासी समाज न तो परंपरा में जी रहा है और न रूढ़ि या प्रथा में। अपने को आदिवासियत में दिखाने के लिए एक अलग लड़ाई लड़ रहा है। इसी बहाने वो कुछ करना चाह रहा है, या कर रहा है, इसे हमें सकारात्मक रूप में लेना चाहिए। परंपरा और रूढ़ि अलग अलग हैं, परंपरा व्यवस्था से जुड़ा मामला है तो रूढ़ि जीवन जीने के क्रम में सीखे संस्कार से। संविधान की बात अलग मसला है। समाज कभी भी कानून या संविधान से नहीं, दस्तूरों से चलता है। यही दस्तूर, परंपरा और रूढ़ियों को ढो कर चलता है। आज न हम दस्तूरों को समझ पा रहे हैं और न परंपरा को और न ही रूढ़ियों को, संविधान या कानून के नजरिये से अपने समाज के संस्कारों को गढ़ने की कशम-कस में हैं। बेहतर होता इस दरम्यान हम उपरोक्त को समझने का सामूहिक स्वीकार्य तरीका निकाल पाते, जैसे जयपाल सिंह मुंडा, पं रघुनाथ मुर्मु एवं लाको बोदरा सरीके अगुवाओं ने 'सरना' के लिए अपने समय में किया। हमारा दुर्भाग्य है कि हम तथाकथित बुद्दिजीवी अपने से शुरू कर अपने में ही अंत देखते हैं। कभी मिल कर भी बैठने का जज्बा दिखाना होगा, वरना जिस तरह झारखंड अलग होते समय यह अंदेशा लगाया गया था कि बंदर के आगे चना डालने से जो होता है आज वही झारखण्ड के साथ हो रहा है, और हुआ है। नए संस्कृति के साथ आगे बढ़ने से आदिवासियों को वही खतरा है जैसे प्रार्थना सभा और लुगु बुरु जैसे धार्मिक कर्मकांड से हिंदुत्व को ही बढ़ावा मिला है/मिल रहा है। पत्थरगड़ी के बहाने एक वृहत बहस को आमंत्रित किया गया है यह सफलता का संदेश है, लेकिन अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़े बिना हम आगे अपने अस्तित्व को बचा पाएंगे यह उम्मीद करना अतिशयोक्ति होगी। इसीलिए संस्कार -संस्कृति से जुड़े लोग, दस्तूर से जुड़े लोग , परंपरा से जुड़े लोग, रूढ़ि प्रथा के अनुपालनकारीयों को गंभीर मंथन से गुजरने की आवश्यकता है। उस मंथन से निकलने वाले विष और अमृत रूपी रस को संजो कर हम आगे का रास्ता तय कर सकते हैं। अन्यथा यह बहस सिर्फ कानूनी और भौतिक हक के दावे में सिमट कर रह जायेगा।
गांव का आदिवासी दोनों तरफ से पिस रहा है। जब किसी भी चीज के अंजाम तक पहुंचने की पूर्ण जानकारी न हो, और आप जोश में आकर कुछ कर जाते हैं, तब स्थिति विकट होगी। आज आदिवासी समाज न तो परंपरा में जी रहा है और न रूढ़ि या प्रथा में। अपने को आदिवासियत में दिखाने के लिए एक अलग लड़ाई लड़ रहा है। इसी बहाने वो कुछ करना चाह रहा है, या कर रहा है, इसे हमें सकारात्मक रूप में लेना चाहिए। परंपरा और रूढ़ि अलग अलग हैं, परंपरा व्यवस्था से जुड़ा मामला है तो रूढ़ि जीवन जीने के क्रम में सीखे संस्कार से। संविधान की बात अलग मसला है। समाज कभी भी कानून या संविधान से नहीं, दस्तूरों से चलता है। यही दस्तूर, परंपरा और रूढ़ियों को ढो कर चलता है। आज न हम दस्तूरों को समझ पा रहे हैं और न परंपरा को और न ही रूढ़ियों को, संविधान या कानून के नजरिये से अपने समाज के संस्कारों को गढ़ने की कशम-कस में हैं। बेहतर होता इस दरम्यान हम उपरोक्त को समझने का सामूहिक स्वीकार्य तरीका निकाल पाते, जैसे जयपाल सिंह मुंडा, पं रघुनाथ मुर्मु एवं लाको बोदरा सरीके अगुवाओं ने 'सरना' के लिए अपने समय में किया। हमारा दुर्भाग्य है कि हम तथाकथित बुद्दिजीवी अपने से शुरू कर अपने में ही अंत देखते हैं। कभी मिल कर भी बैठने का जज्बा दिखाना होगा, वरना जिस तरह झारखंड अलग होते समय यह अंदेशा लगाया गया था कि बंदर के आगे चना डालने से जो होता है आज वही झारखण्ड के साथ हो रहा है, और हुआ है। नए संस्कृति के साथ आगे बढ़ने से आदिवासियों को वही खतरा है जैसे प्रार्थना सभा और लुगु बुरु जैसे धार्मिक कर्मकांड से हिंदुत्व को ही बढ़ावा मिला है/मिल रहा है। पत्थरगड़ी के बहाने एक वृहत बहस को आमंत्रित किया गया है यह सफलता का संदेश है, लेकिन अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़े बिना हम आगे अपने अस्तित्व को बचा पाएंगे यह उम्मीद करना अतिशयोक्ति होगी। इसीलिए संस्कार -संस्कृति से जुड़े लोग, दस्तूर से जुड़े लोग , परंपरा से जुड़े लोग, रूढ़ि प्रथा के अनुपालनकारीयों को गंभीर मंथन से गुजरने की आवश्यकता है। उस मंथन से निकलने वाले विष और अमृत रूपी रस को संजो कर हम आगे का रास्ता तय कर सकते हैं। अन्यथा यह बहस सिर्फ कानूनी और भौतिक हक के दावे में सिमट कर रह जायेगा।
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