पत्थरगढ़ी नहीं सोना का भंडार विवाद की असली वजह

राज्य में राज्य का मुखिया पत्थरगढ़ी में कुछ महीनों से लगातार बयानबाजी और विज्ञापन दे रहा है। मुंडा जाति में कई तरह की पत्थरगढ़ी होती है और सबका अपना पारंपरिक महत्व है। जैसे पड़हा दिरी, ससन दिरी, बो दिरी, अखड़ा दिरी, रचा दिरी, होरा दिरी, सेहेल दिरी, आदि। यहां दिरी (मुंडा में)मतलब पत्थर है। लेकिन इन सारे परम्पराओं में संविधान या सुप्रीम कोर्ट की बातें लिखने की बातें पहले नहीं दर्ज की गई। यह पेसा कानून 1996 के बाद के घटनाक्रमों में है। पत्थर में संविधान की या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को अंकित कर लिखना गलत तो नहीं है, लेकिन वह पारंपरिक नहीं कहा जा सकता और न ही रूढ़िगत। ऐसा कहना रूढ़ि/प्रथा/परंपरा का अपमान होगा। अब राज्य का मुखिया बार बार इस इशू को उठा कर कहीं न कहीं दूसरे साजिश की ओर इशारा कर रहा है। उस क्षेत्र में सोना का भंडार भी मिला है, और यह सब नाटक उस निमित क्षेत्र को अशांत घोषित कर सेना लगाने से है। देश में इतिहास गवाह है कि जहां भी सरकारों को खनन करना हो, फैक्ट्री लगाना हो, सड़क बनाना हो(पूंजीपतियों के लिए), शहर का विस्तार करना हो, वहां सरकार प्रायोजित भ्रामक स्थिति पैदा की जाती है। मेरा दावा है कि कल सेंट्रल बीयूरो ऑफ माइंस यदि यह ऐलान कर दे कि उस क्षेत्र में सोना नहीं है, यह सारा मामला तुरंत ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा। जहां तक संविधान एवं सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात है तो सरकारें उसे लागू क्यों नहीं कर पा रही है ? उस पर यदि सरकार ध्यान दे देती तो आदिवासियों का समर्थन भी मिलता। एक तो आदिवासियों को संवैधानिक प्रावधानों से भी वंचित करना है, और अपना उल्लू भी सीधा करना है, इन परिस्थितियों में हमेशा आदिवासी ही पिसता है, और यहां भी पिस रहा है। सरकार क्योंकि आदिवासियों को कोई अधिकार देना नहीं चाहती इसीलिए ध्यान भटकाने के लिए बार बार बयान और विज्ञापन देकर इसे मुद्दा बनाए रख रही है। जिस दिन झारखंड के लोग चाहे आदिवासी हो या मूलवासी इन बातों को समझ लें, उस दिन इन सरकारों की खैर नहीं।

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