जिस फोटो को पोटो हो का कहकर प्रचारित किया जा रहा है,वास्तव में वह बोइ कुदादा का फोटो है यह फोटो 1862 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था जिसे बेंजामिन सिम्सन ने खींचा था। लंदन में प्रदर्शित हुए फोटो प्रदर्शनी में यह फोटो भी स्वर्ण पदक जीतने वाले श्रृंखला का ही हिस्सा था। यही फोटो कुछ साल बाद 1868 में जॉन फोर्ब्स वाटसन और जॉन विलियम केय की फोटो बुक की श्रृंखला द पीपल्स ऑफ इंडिया की वॉल्यूम वन के प्लेट 18 में लड़ाका कोल' छोटा नागपुर के रूप में प्रकाशित हुआ था 1872 में इ टी डाल्टन ने सिम्पसन की तस्वीर का इस्तेमाल डिस्क्रिप्टिव एथिनॉलेजी ऑफ बंगाल में किया था। डाल्टन ने इनके बारे में स्पष्ट करते हुए लिखा था कि इनकी उम्र 22 साल है ऊंचाई 5 फीट साढ़े 5 इंच है, एवं इनका किली कुदादा है। इस तरह से यह यह फोटो बोइ कुदादा का फोटो है । 1908 में बोइ की तस्वीर को एच एच रिसले ने अपने प्रसिद्ध पुस्तक द पीपल ऑफ इंडिया में फिर से उपयोग किया था। इतना ही नहीं 2016 में पॉल स्ट्रेउमर की बुक ए लैंड ऑफ देअर ओन का कवर बॉय भी यही बोइ कुदादा ही है। इस तरह से सिम्सन के द्वारा खींची गई यह तस्वीर हो' लोगों की पहली तस्वीर रही है, और अभी तक दस्तावेजों के आधार पर उसी रूप में इसकी पहचान जिंदा है।
जहां तक कड़िया डिबर बानरा (पोटो
हो) की बात है, तो वह इसमें कोई दो राय नहीं कि वह
सदर प्रखंड के राजा बासा गांव के ही थे। पोड़ाहाट राजा जयसिंह हमेशा राजाबासा पर
आक्रमण कर टैक्स उगाही का प्रयास करते रहे थे, असफल होने पर
अंग्रेजों का सहारा लेकर उसी राजाबासा से कोल्हान में घुसने का प्रयास किया जाता
रहा था। इस कारण कड़िया डिबर बानरा(पोटो हो), पिता का नाम करंट
सेलाए बानरा था, उनका छोटा भाई अंडिया सुरा बानरा था, ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए एक व्यापक योजना बनाई। चूंकि सदर प्रखंड
वाला राजाबासा हमेशा कभी पोड़ाहाट राजा तो कभी अंग्रेज आ दमकते थे, इसीलिए दुर्गम जगह सेरेंगसिया घाटी, बलंडिया एवं पोकम राजाबासा, जो जैंतगढ़ के
बगल में है, को अपना केंद्र बना कर अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान का ऐलान किया था।
ये लोग सदर प्रखंड के राजाबासा से थे इसीलिए उनके बस्ती को पोकम के लोगों ने
राजाबासा ही नाम दे दिया था। 19 नवंबर 1837 को जब अंग्रेजी सेना को सेरेंगसिया घाटी में हार का सामना करना पड़ा
था तब अंग्रेजों ने कड़िया डिबर बानरा(पोटो हो) को खोजने के लिए प्रयास शुरू किया।
कैमरा का आविष्कार 1815 के आसपास में हुआ था। 1837-38 में वो कैमरा फील्ड में लाने लायक नहीं था याने की फील्ड में कैमरा
का उपयोग संभव नहीं था। स्वाभाविक रूप से उस हालात में कड़िया डिबर बानरा(पोटो हो)
का फोटो खींचना भी संभव नहीं था, और अगर कड़िया डिबर बानरा(पोटो हो)
का फोटो आ गया तो नारा हो, बड़ाय हो का भी तो फोटो आ सकता था।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उसका कारण यह था की अंग्रेजों ने
कड़िया डिबर बानरा(पोटो हो) को खोजने के लिए स्केच का सहारा लिया, जानकार लोगों से उसका स्केच बनाकर बालंडिया और इर्द-गिर्द गांव में
चिपका कर जिंदा या मुर्दा पकड़ने वाले को इनाम की घोषणा की गई। हो लोग 'पोटोवा कन हो'(हो में) कह कर संबोधित करते थे, तो अंग्रेजों ने उसे 'पोटो हो' के रूप में दस्तावेजों में अंकित किया। और असली नाम कड़िया डिबर
बानरा इस नकली नाम के सामने गुमनाम हो गया। यह अत्यंत ही दुर्भाग्य कि बात है कि न
तो इतिहासकारों ने और न ही अभी के आदिवासी शोध संस्थान टी आर आई रांची ने इसकी
सत्यता को जांचने की कोशिश की, सिर्फ हो लोगों के इतिहास को जबरन
तोड़ने मरोड़ने का ही काम कर रही है।
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