एक बुजुर्ग
व्यक्ति थे, वे अपने घर का जो भी पूजा पाठ होता था वही करते थे। जब वे घर के आँगन में
पूजा के लिए बैठते थे, और पूंजी वगैरह करते थे तो अक्सर घर की बिल्ली उसे डिस्टर्ब
किया करती थी। उससे परेशान होकर अक्सर बिल्ली को बाँध दिया जाता था। कालांतर में बुजुर्ग
का देहांत हो गया। तो उसका बेटा अब पूजा करने लगा। जब उसके पिताजी पूजा करते थे उसको
ही देख देख कर उसका लड़का पूजा पाठ सीखा। जब वह पूजा के लिए बैठा तो देखा की कुछ चीज
अधूरी है। उसका पिताजी हमेशा एक बिल्ली को पाए से बाँध कर रखते थे। लेकिन अब तक वह
बिल्ली भी मर चुकी थी। इसीलिए बगल वाले घर से बिल्ली लाकर उसे बाँध दिया गया, तब जाकर
उसने पूजा किया। इस तरह हो समाज में दस्तूरों में समयानुकूल बदलाओ देखने को मिलते हैं।
उसी तरह मगे
पर्व के लिए भी जो मगे करते हैं के लिए कहा-सुना जो जाता है, वह यह है की जब दियूरि
मगे पूजा कर रहे थे, तो मुर्गा पूंजी को नहीं खा रहा था, ऐसे में कुछ लोग जो पीछे खड़े
रहते हैं देखने के लिए ने आपस में बे-पेलेंग(मजाक) करते हुए में ‘हाउ रुजी’ कह कर चिल्लाए।
तभी मुर्गा ने भी पूंजी खाना शुरू कर दिया। यहीं से यह प्रचलन में आया की मगे पर्व
में मगे करना है। समाज में यह भी एक दस्तूर हो गया। लेकिन यह भी समझने की बात है कि
यदि मुर्गा साधारण तरिके से पूंजी खाता है तो फिर मगे की जरुरत नहीं पड़नी चाहिए। हमलोग
पहले वाले प्रयास को नजरंदाज कर सीधे मगे पर उतर आए। और आज जो गाँव में मगे होता है,
वह तो मगे पर्व के अनुकूल ही नहीं है, और नहीं होना चाहिए। हमारी भाषा का साहित्य के
हिसाब से ‘हाउ रुजी’ तक ही मगे को सीमित रखना चाहिए। लेकिन जिस तरह ऊपर के उदाहरण से
स्पष्ट होता है की दस्तूर बहुत संवेदनशील होता है, और मौका मिलते ही समाज को आइना दिखाने
का काम करता है। दुर्भाग्य है कि हो समाज में इन चीज़ों का विश्लेषण हम ना करके और
आँख मूंध कर पालन करने से असली परम्परा बिलोपित होने के कगार पर है। और विकृत परम्परा
स्थान लेते जा रही है। अब बे-पेलेंग की परिस्थिति क्या और कैसी हो सकती है, वह भी उस
समय के माहौल पर निर्भर करती है। इस लेख को दस्तूर कैसे अपना स्वरूप हो समाज में बदलती
है तक ही मैंने सीमित किया है। अन्य मामलों के लिए नहीं.
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Ondo riya riya ko kaji ya chike te torang...