सिंहभूम लोकसभा चुनाव 2019 के बहाने आदिवासी एकता पर विश्लेषण



लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ पूरे देश में मोदी लहर में एकतरफा वोट गिरा लेकिन इस बीच एक लोकसभा क्षेत्र सिंहभूम ऐसा भी रहा जहां पहले राउंड से लेकर अंतिम राउंड तक मोदी पीछे रहा। यह लड़ाई सही में नीतिगत स्तर पर मोदी की भाजपा बनाम आदिवासी जनता की थी। मोदी की नीतियां लोगों को पसंद आ रही थी या नहीं, जैसे सीएनटी एक्ट संशोधन का मामला हो या भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन का मामला हो, या वन अधिकार अधिनियम में संशोधन का मामला हो, कोल्हान के हो आदिवासियों ने मोदी और भाजपा के नीतियों को सिरे से खारिज कर दिया। यह लड़ाई स्थानीय नेतृत्व की थी ही नहीं। झारखंड के 14 में से 12 सीट भाजपा ने उसी आँधी में जीत ली। और इस प्रचंड धारा के विपरीत भी अपना अस्तित्व को बचाए रखने में हो’ समाज सफल  हुआ। ज्ञात हो यहाँ लड़ाई सामाजिक स्तर पर लड़ी गई, पार्टी स्तर पर नहीं। कई बूतों में तो विपक्ष की तरफ़ से बूथ एजेंट भी नहीं बैठा, लेकिन वोट एकतरफ़ा गया, भाजपा के ख़िलाफ़। यह पूरे देश के 10 करोड़ आदिवासियों के लिए एक बहुत बड़ा संदेश है।
      इस बीच झारखंड की राजधानी में विभिन्न संगठन के लोगों द्वारा बड़ी बड़ी रैलियाँ जल, जंगल और जमीन के नाम पर, सी0एन0टी0ऐक्ट में संशोधन के विरोध में भाजपा सरकार को चुनौती देते हुए सम्पन्न हुई। तथाकथित रूप से इतनी एकता के बाद भी एक भी राजनीतिक सीट निकालने में उराँव, मुंडा और संताल(अपवाद  : राजमहल) आदिवासी समाज के लोग सफल नहीं हुए।
      मेरा विश्लेषण कहता है की इसके पीछे धर्म तो कारण नहीं? 2011 की जनगणना देखेंगे तो पाएँगे की सिर्फ़ 35% संताल, 58% उराँव, 48% मुण्डा और 93% हो आदिवासियों ने झारखंड में अपनी पहचान सरना के रूप में की। 54% संताल, 12% उराँव, 17% मुण्डा और सिर्फ़ 3% हो आदिवासियों ने अपना धर्म हिंदू लिखा। जबकि 8% संताल , 26% उराँव, 32% मुण्डा, और सिर्फ़ 2% हो आदिवासियों ने अपना धर्म ईसाई लिखा। अलग अलग धर्मों में होने के कारण गाँव समाज अलग अलग गुटों में बँट गया। कुछ मंदिर से गाइड होने लगे, कुछ चर्च से तो बाक़ी प्रकृति से। हो आदिवासियों में चूँकि ग्राम सभा व्यवस्था सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से मज़बूत है, इसलिए धर्म के नाम पर यहाँ बिखराव न होकर समाज पूर्णत: सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से संचालित होता है। आदिवासी धार्मिक नहीं वरण सामाजिक और सांस्कृतिक प्राणी है, यह हो आदिवासियों के बीच परिलक्षित होता है।
      धर्म में बँटने के कारण धार्मिक ध्रुवीकरण का मैदान हमने विरासत में राजनीतिक पार्टियों को दे दिया, और यही तो उन्हें चाहिए था। सबसे पहले गाँव स्तर में पहले पूरा गाँव एक था अब, सरना, ईसाई, हिंदू में बँट गया। ध्रुवीकरण के लिए आदिवासियों के बीच भी धर्म का मुद्दा जोर शोर से उठा, और आदिवासी एक ही गाँव में थे लेकिन अलग अलग उठने बैठने लगे। एक नतीजा तो अभी लोकसभा चुनाव में आ ही गया। अभी कई और योजनाएँ/परियोजनाएँ आनी है, वहाँ पर भी गाँव को गुटों में बाँट कर हमारी जल, जंगल और जमीन सरकार को लेनी है।
      हम दिखावे की लड़ाई लड़ रहे हैं, ऐसे नहीं चलेगा। सबसे पहले देश के 10 करोड़ 39 लाख आदिवासियों को किस मुद्दे से हम एक साथ सम्बोधित कर सकते हैं, समझा सकते हैं, उस विषय की खोज शुरू की जाए। हाँ एक उदाहरण झारखंड के हो’ आदिवासी ज़रूर हो सकते हैं, लेकिन यह अंतिम उदाहरण न हो। लेकिन मेरे ख्याल से ग्राम सभा जो पारम्परिक रूप से सामाजिक स्तर पर चलता है, जिसमें गाँव स्तर पर मुंडा/मानकी/माँझी/परगना आदि को स्थापित करना हो सकता है। दुबारा ऐसी व्यवस्था को अपने अपने समाज के हिसाब से स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। यहीं से पाँचवीं अनुसूची, पेसा क़ानून आदि के एवज़ में हम राष्ट्रीय स्तर पर स्वायत्तशासी परिषद की परिकल्पना पर व्यापक बहस को आमंत्रित कर सकते हैं, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन का हिस्सा बना सकते हैं। जब हमारे समाज को समझने वाले इकाइयों की स्थापना सुनिस्चित हो जाएगी तब आदिवासी समाज भी आगे बढ़ सकेगा। हाँ लेकिन ये सभी प्रकृति के सानिध्य में ही॰॰॰
      भाजपा ने प्लान A प्लान B और प्लान C के तहत इस बार का लोकसभा चुनाव लड़ा। एक प्लान में आप target में नहीं आए तो दूसरे में लपेटे में आएँगे, अन्यथा तीसरे में। लेकिन दूसरी पार्टियों के पास तो भाजपा का विरोध की एकमात्र प्लान था। part time स्टाइल में न ही राजनीति सफल होगी और न सामाजिक काम, ये हमें अब समझना होगा। अपनी बातों को market करना भी सीखना होगा॰॰॰ यानी अपनी बात अगला भी समझे यह ज़रूरी है, ऐसा न हो कि वो बात हम अकेले ही समझ रहे हैं, तब कोई फ़ायदा नहीं।
      ये बात भी अब हमें समझने का कोशिश करना चाहिए की भाजपा अगले पाँच साल में पिछले पाँच सालों की भाँति ज़्यादा उठा पटक शायद न करे। इस मौक़े को ये लोग प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पंडित नेहरु के समतुल्य लाने का प्रयास कर सकते हैं।
      ये तो इनकी अपनी कार्य योजना होगी, जब आएगी तो हम ज़रूर देखेंगे। लेकिन हम आदिवासियों की कार्य योजना क्या हो? इस पर खुले मन से हमें भी प्रयासरत होना चाहिए।
लड़ेंगे तभी तो जीतेंगे॰॰॰
हुलगुलान जोहार!

Comments