बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी प्रखंड के उलिहातू गांव में हुआ था। उनके पिता सुगना मुंडा और माता करमीहतु थी। आदिवासी मुंडा गांव होने के कारण वहां की सामाजिक व्यवस्था के अधीन ग्राम का प्रधान मुंडा था और पूजा पाट की अगुवाई पहान करते थे। जल जंगल और जमीन पर गांव समाज का स्वामित्व था। स्वशासन व्यवस्था के तहत पूरा गांव समाज चलता था। अंग्रेजों के आने से पहले कई रजवाड़ों ने, राजा महाराजाओं ने आदिवासी इलाकों में टैक्स लेने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुए। आदिवासियों ने अपना विरोध लगातार जारी रखा। जब अंग्रेज इस क्षेत्र में आए तो कुछ साहूकारों को इन्होंने टैक्स की उगाही के लिए लगाया। उनके मनमौजी रवैये से आदिवासी इलाके में व्यापक आक्रोश और अशांति फैल गई। लोगों ने टैक्स व्यवस्था का विरोध शुरू किया। मुंडा लोगों का कहना था कि जब जमीन हमने प्रकृति से लिया तो इसका टैक्स अंग्रेजों को हम क्यों दें? मुंडा आदिवासी अपने जल जंगल और जमीन पर बाहरी दखल को किसी सूरत में बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थे। अंग्रेजों ने साथ ही अंग्रेजी हुकूमत स्वीकार करने का दबाव भी देने लगे। वे अपनी स्वशासन व्यवस्था पर बाहरी दखल को स्वीकार नहीं किए। उसी तरह जंगल की जो उत्पाद है, लकड़ी है इत्यादि पर अंग्रेजों ने कब्जा करना शुरू किया तो मुंडाओं ने स्पष्ट किया कि जंगल हमारा है। अपनी जल जंगल और जमीन पर स्वायतत्ता एवं अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बाहरी दखल को बर्दाश्त नहीं करने की लड़ाई का प्रतिफल ही वास्तव में बिरसा मुंडा के रूप में सामने आया। इस लड़ाई में ईसाई मिशनरियों ने सहायता का आश्वासन उन्हें दिया था। ईसाई मिशनरियों के स्कूल में दाखिल हुए और अपना नाम डेविड पूर्ति रखा। 1886-87 में मुंडाओं ने जल जंगल और जमीन की लड़ाई का आंदोलन छेड़ दिया। तब अपने कथन के अनुसार पादरियों ने मुंडा सरदारों का सहायता ना करके अंग्रेजी हुकूमत का साथ दिया, जिससे बिरसा मुंडा को ईसाई मिशनरियों के सहायता में साजिश नजर आया और उन्होंने इस हुलगुलान में साथ देने के लिए ईसाइयत छोड़ दिया। 1894 में बिरसा मुंडा ने सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजों की लगान व्यवस्था के खिलाफ जोरदार आंदोलन छेड़ दिया। 1895 में उसे गिरफ्तार किया गया और 2 साल की सजा हुई। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच में लगातार युद्ध होते रहे। 1897 में बिरसा ने सैकड़ों आंदोलनकारी साथियों के साथ खूंटी थाना पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेजी सेनाओं से हुई, जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। जनवरी 1900 में डोम्बारीबुरु में एक और संघर्ष हुआ, जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गए मारे गए। उस जगह बिरसा मुंडा अपनी जनसभा को संबोधित कर रहे थे। बाद में उनके सहयोगियों की गिरफ्तारियां हुई। अंत में 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया गया। उन्हें रांची कारागार में रखा गया, जहां 9 जून 1900 को बिरसा मुंडा ने अपनी अंतिम सांसें ली। अंग्रेजों ने कहा कि हैजे से उनकी मौत हुई, लेकिन जनता में हमेशा यह कहा गया कि उनको जहर देकर मारा गया। बिरसा मुंडा के हुलगुलान से अंग्रेजों को इतना तो समझ में आ गया की यहां के आदिवासियों के आक्रोश को यदि नजरअंदाज किया गया तो यहां शासन व्यवस्था चलाना दूभर हो जाएगा। उसी का प्रतिफल था कि अंग्रेजों ने आदिवासियों के जमीन को बाहरी लोगों से बचाने के लिए सीएनटी एक्ट का ड्राफ्ट 1903 में लाया। लेकिन टाटा को 1907 में जमीन आवंटित करने मकसद से इसे 1908 में पारित किया गया और सीएनटी 1908 अस्तित्व में आया।
वास्तव में 'आबुआ दिशुम आबुआ राज'(अपने गाँव में अपना राज) में बाहरी दखल को समाप्त करने से ही हम बिरसा मुंडा की शहादत को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकेंगे। इसके लिए अपने बुनियादी संस्कृति की समझ को पुनः स्थापित करना होगा । आइए एक प्रयास इसके लिए भी करें, क्या पता देश के आदिवासी इसी से एकजुट हो जाएँ।
वास्तव में 'आबुआ दिशुम आबुआ राज'(अपने गाँव में अपना राज) में बाहरी दखल को समाप्त करने से ही हम बिरसा मुंडा की शहादत को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकेंगे। इसके लिए अपने बुनियादी संस्कृति की समझ को पुनः स्थापित करना होगा । आइए एक प्रयास इसके लिए भी करें, क्या पता देश के आदिवासी इसी से एकजुट हो जाएँ।
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