द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद
संसार में बहुत बड़े स्तर पर अशांति का माहौल था। दुनिया में पुन: शांति स्थापित
करने एवं मुकम्मल व्यवस्था कायम करने के इरादे से 1945 में 189
स्वतंत्र राष्ट्रों ने मिलकर एक अंतराष्ट्रिय संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की थी। इस संस्था का महत्वपूर्ण उद्देश्य
यह था कि संसार में सामाजिक और आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जाए और यह सुनिश्चित
किया जाए की दुनिया भर में मानवाधिकारों का सम्मान हो।
विभिन्न राष्ट्रों के बीच संघ
की परिकल्पना को जीवित रखने वाली एक विशिष्ट एजेन्सी है, अंतराष्ट्रिय श्रम संगठन
(आई.एल.ओ.) जिसकी स्थापना 1919 में हुई थी, इसी
संगठन ने हमेशा आदिवासियों के विषयों को अपने अजेंडा में शामिल किया। और सबसे पहला
मामला 1920 का है जब अंतराष्ट्रिय श्रम संगठन ने
आदिवासी श्रामिकों की श्रम स्थितियों की जाँच के लिए अध्ययन शुरू किया था। पुन: 1957
में समझौता 107 और 1989 में
संशोधित समझौता 169 पारित किया। इन अनुबंधों में आदिवासिओं के
निम्लिखित दो स्तरीय दृष्टिकोण दिए गए – आदिवासी उन्हें माना गया
1- जिनकी
हैसियत पूरी तरह या आंशिक तौर पर अपने रीति -रिवाजों, परम्पराओं या विशेष नियमों द्वारा नियंत्रित एवं संचालित होती है।
2- जिन्हें
ऐसी जनसंख्याओं का वंशज होने के कारण आदिवासी माना जाता है, जो देश पर विजय, उपनिवेशीकरण या मौजूदा सीमाओं के
स्थापित होने के पहले कुछ देश या उसके भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे थे और जिन्होंने
अपनी कानूनी हैसियत की परवाह किए बिना अपनी सामाजिक, आर्थिक,
सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संस्थाएं पूरी तरह से या कुछ हद तक बचाए
रखी है।
और इस तरह से आदिवासियों की
परिभाषा के चार मुख्य पहचान तय किए गए :
1.
राज्य की संस्थाओं और व्यापक समाज में
वे एक निचले दर्जे का स्थान रखते हैं और कभी-कभी वे जातीय भेदभाव के शिकार होते
रहे हैं।
2.
ये सामूहिक रूप से अपने पुराने रीति
-रिवाजों को बरक़रार रखते हुए जीवनयापन कर रहे हैं। और अपनी पुरानी मान्यताओं के
कारण ही वे अन्य समूहों से अलग पहचान बनाते हैं।
3.
परंपरागत प्राकृतिक संसाधनों पर
सदियों से उनका मालिकाना हक़ रहा है, लेकिन उस संसाधनों के
आजादी पूर्वक उपभोग से उन्हें वंचित किया जाता रहा है।
4.
आदिवासी लोग किसी सीमा में रहनेवाले
मूल लोगों के वंशज हैं, और विदेशी उपनिवेशवादी ताकतों द्वारा इतिहासिक रूप से शोषित है।
आर्श्चय है कि भारत ने पहले तो
इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक
और सामाजिक परिषद् ने अल्पसंखयकों और आदिवासियों के प्रति भेदभाव रोकने और उनकी
रक्षा करने के मुद्दे पर गठित उप-आयोग को आदिवासियों के खिलाफ भेदभाव पर जाँच
पड़ताल करने के लिए 1972 में अधिकृत किया। Equador
के जोस मार्टिनेज कोबे को यह जाँच पड़ताल करने के लिए नियुक्त किया
गया। और कोबे ने 1986 में अपनी जाँच पूरी की।
1982 में
आदिवासी आबादियों पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यदल (UNWGEP) का
गठन किया गया। वर्ष 2006 तक प्रत्येक वर्ष इस कार्यदल की
बैठक होती रही। इस कार्यदल के क्रियाकलापों में संसार के प्रतिनिधियों और आदिवासियों
ने भाग लिया। विश्व भर के आदिवासियों की अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक,
एवं आर्थिक धरोहरों की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षों की भावना को
देखते हुए सर्वप्रथम 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा
में यह तय किया गया की ऐसी कोई मुकम्मल नीति बनाई जाए जो आदिवासी समुदायों को
विश्व स्तर पर एकसूत्र में बाँध सके। चूँकि कई देशों ने आदिवासियों को जातिय
अल्पसंख्यक की तरह मान्यता नही दी थी, अत: 1992 के अंतराष्ट्रिय मानवाधिकार दिवस में इस विषय पर चर्चा की गई कि
आदिवासियों के अधिकारों पर विश्वव्यापी घोषणा के प्रस्ताव को राष्ट्र संघ की
साधारण सभा द्वारा अग्रसारित किया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1993 को आदिवासी वर्ष घोषित किया और इसी वर्ष 1993 में संयुक्त
राष्ट्र कार्यदल के 11 वें सत्र में आदिवासी अधिकार घोषणा
प्रारूप को मान्यता दी गई।
23 दिसम्बर 1994 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने निर्णय लिया कि पहला आदिवासी दशक 1995-2004 के
दौरान प्रति वर्ष 9 अगस्त को अंतराष्ट्रिय आदिवासी
दिवस मनाया जाएगा। यह दिन वास्तव में 1982 में आदिवासी
आबादियों पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यदल की पहली बैठक का दिन था।
आदिवासी दशक को पुन: 2005-2014 तक
बढ़ाया गया।
इस
तरह विश्व आदिवासी दिवस मनाने की शुरुआत हुई।
वर्ष 1995
में मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई, और उपरोक्त
प्रारूप पर आगे काम बढ़ाने के लिए अन्तर-सत्र-कार्यदल का गठन किया गया। क्योंकि
उक्त प्रारूप को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के समक्ष प्रस्तुत करना था।
विभिन्न देशों के सरकारी प्रतिनिधिओं के साथ आदिवासियों को भी इस सभा में भाग लेने
का अवसर दिया गया। मानवाधिकार परिषद् ने 29 जून 2006 को घोषणा के संशोधित प्रारूप को स्वीकार किया और उसे महासभा को पेश किया
गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने नवम्बर 2006 में
अन्तिम निर्णय को किसी कारण वश टाल दिया था। लेकिन अंतत: 13 सितम्बर
2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने कुछ परिवर्तनों के
साथ घोषणा को स्वीकार किया और आदिवासी घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया । इसीलिए 13 सितम्बर को आदिवासी अधिकार घोषणा
दिवस भी कहा जाता है।
इस घोषणा पत्र में कुल 46 अनुच्छेदों का जिक्र है, जिसमें आदिवासी लोगों के
आत्मनिर्णय के साथ-साथ उनकी संस्कृति, धर्म, शिक्षा, सूचना, संचार, स्वस्थ्य, आवास, रोजगार,
सामाजिक कल्याण, आर्थिक गतिविधियाँ, भूमि एवं प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंध, प्रयावरण और
गैर आदिवासियों के आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश आदि विषयों को रखा गया और इन
विषयों में से एक स्वायत कार्यों यानी स्वशासन व्यवस्था की वित्तीय उपलब्धता भी
शामिल था। इस बार भारत को भी आदिवासियों के लगातार संघर्षों एवं अंतराष्ट्रिय दबाव
के कारण ही सही, घोषणा पत्र में हस्ताक्षर करना पड़ा।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 253 के
तहत इस अंतरष्ट्रीय समझौता में हस्ताक्षर के साथ ही भारत अब
सिद्दांतत: आदिवासियों के हक़ और
अधिकारों से मुँह नहीं मोड़ सकता वरण बाध्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ की नीति के
अनुरूप आदिवासियों को इंडिजिनस पीपुल के तमाम आधिकार देते हुए उन्हें अपनी संस्कृति, परम्परा और जीवन शैली के अनुरूप अपना विकास का मौका देने के लिए सरकारें अब
बाध्य हैं।
लेकिन वास्तव में हो कुछ नहीं
रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने उद्देश्य में स्पष्ट कर दिया है कि 9 अगस्त को दुनिया के तमाम देशों की सरकारों से ये अपेक्षा की गई है, कि
सरकारें आदिवासियों के पिछड़ेपन, शोषण, उत्पीड़न एवं समग्र विकास में पीछे छूट
जाने के कारणों को जानने तथा उसे दूर करने के उपाय ढ़ुडें, इसकी समीक्षा करें।
आदिवासियों को उनके प्राकृतिक एवं संवैधानिक अधिकार प्राप्त हो रहे हैं या नहीं?
यदि नहीं मिले हैं तो उनको सरकारें अधिकार दिलाएँ। ध्यान रहे आदिवासी समाज के
मानवीय अधिकारों का संरक्षण हो, उनके जल जंगल और जमीन के अधिकार सुरक्षित रहें,
अस्मिता, आत्मसम्मान, कला संस्कृति, अस्तित्व क़ायम रहे एवं शिक्षा का व्यापक
प्रचार प्रसार हो ऐसी मंशा संयुक्त राष्ट्र संघ ने आदिवासियों के लिए की है।
इन्हीं उद्देश्यों तथा जनजागृति हेतु यह दिवस आज मनाया जाता है।
हमारी एकता ही हमारा भविष्य
है, आइए हम सब एकजुट होने के हर प्रयास को साथ दें, सभी आदिवासी साथी एक दिन का
अवकाश लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में होने वाले विश्व आदिवासी दिवस समारोह में तन
मन धन से सहयोग करें और अपने परिवार संग पारम्परिक वेशभूषा, आभूषण, वाद्दयंत्र एवं
पारम्परिक तीर धनुष के साथ उपस्थित होकर आदिवासी सांस्कृतिक को सम्मानित एवं
समृद्द बनाएँ।
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