मगे/मागे पर्व का प्राकृतिक दर्शन

मगे पर्व : दर्शन (प्राकृतिक)

 आदिवासी प्राकृतिक है, और अपने जीवन जीने के क्रम में जो भी संस्कार और संस्कृति हमने प्रकृति से सीखा, वही हमारा दर्शन है, मैं उसी दर्शन को सामने लाने का प्रयास कर रहा हूँ। हमारे पूर्वज बिलकुल सीधे थे, और जो सामने देखते थे, उसे सीधे तरीक़े से समझते थे और उसमें जीते थे। हाँ बहुत सारे दस्तूर जो कालांतर में बने वह व्यक्तिगत अनुभव और मान्यता से विकसित हुए। उदाहरण के तौर पर कौन से त्योहार से पहले क्या क्या चीज़ नहीं खाना है, या क्या खाना है इत्यादि।

हो आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार (मगे पोनाई) माघ पूर्णिमा में होता है। यह मूलतः प्रकृति को धन्यवाद देने का त्योहार है। साल भर हमारा साथ और सहयोग देने के लिए शुरुआत में यह मनाया जाता था। ज्ञात हो जब हम जंगलों में रहते थे उस समय जंगल के कंद मूल, फल-फूल इत्यादि खा कर जीवन गुजर-बसर करते थे।जंगल के जल श्रोतों से प्यास बुझा लेते थे।जंगल में थे तो आराम फरमोश जिंदगी जीते थे, कंद मूल खाया और आराम किए, शिकार किए फिर आराम। वही आचरण आज भी आदिवासियों में कमोवेश होती है। लोग आलसी बोलते हैं लेकिन हमने यह प्रकृति से सीखा है। वास्तव में यह व्यवहार आलसी नहीं है, वरण हम उतना की चीजों को संग्रह करते हैं, जितना हमें ज़रूरत होती है, बाक़ी प्रकृति पर छोड़ देते हैं। यह तो बाहरी लोग आए जो उन चीजों को बिक्री के लिए वस्तु के रूप में हमें बताया। आज हमारे सभी प्राकृतिक वस्तुओं को commodity बना दिया गया है।

हम उस समय भोजन एवं सुरक्षा के लिए एक साथ और मिलजुल कर रहना शुरू किए थे। कालांतर में जब हमारी जनसंख्या बढ़ने लगी और भोजन की कमी होने लगी, तो हम खेती बारी के ज़मीन में प्रवेश किए। उसके लिए जंगल झाड़ियों को साफ किए। उसी दरमियान: नम चलु: नम बोंगा बुरुयानी जंगल साफ करने की प्रक्रिया में प्रकृति के शक्ति केंद्रों को सपने के माध्यम से या जंगल में रहने के क्रम में होने वाली अन्य हरकतों से पाया। हम उन्हीं को देशाउलि, पाऊँड़ी, जयरा, गोवाँ बोंगा के रूप में मानते हैं। जिन्होंने सर्वप्रथम जंगल-झाड़ी को साफ करने की शुरुआत की उसे गोरम ग़ैंसिरी के रूप में हम सम्मान देते हैं। 

         जंगल में रहने के दौरान प्रकृति को धन्यवाद देने के लिए अक्सर माघ महीने के पूर्णिमा में और जबलम: जो को जो: सोमयलम: एक तरह का लत्तर वाला पेड़ है इसके फल को सीधे या पका कर खाया जा सकता है, और ज्यादा खाने से नशा भी होता है। लम: जो को होबाओ रे एन सोमय रेया पोनाई यानी पूर्णिमा रे नेन पोरोब दो बु मनातिंग टाईकेना। ताकि खुद ओंडो सोमबोंदि को जोम नू रेया कमी का होबाओका मेनते।रांसा बांसा से बोंगा बुरु जगह कोबु सपाया ओंडो बोंगा को बु जगारकोआ ची नेको तले नाआय आपे सेबा तन कोदो। जाति पर्ची कोवा बु। एन मुसिंग तो अनादेर को मेन केडा। बोंगा बुरु सेबा सड़ा तन को बु बोंगा आदेर तना। मतलब दियरि ओंडो तिंगु गोम को।नमा दियुरी या नमा तिंगु गोम को नेन मुसिंग गे बु बोंगा आदेर दाईया कोआ। ना बरसिंहों अनादेर तो एन मूल स्वरूप रेगे बु मनातिंग तना। इसी अनुषठान के दौरान आजकल हमलोग देशाउलि जाने के क्रम में, साफ सफ़ाई के क्रम में, या खाना बनाने के दौरान कोई भी (एरे)ग्रह होता है तो उस का निदान आदि करने के बाद ही त्योहार की तिथि तय होती है। यह आयोजन मूल त्योहार से 2 या 3 सप्ताह पहले सम्पन्न होता है। अभी हम उसे त्योहार की तिथि घोषित करने का दिन के रूप में भी कह सकते हैं।हम अपने देवी देवताओं को आह्वान करते हैं और उनके अनुसार तिथियों की घोषणा करते हैं, ऐसा दस्तूर में कहते हैं। तकनीकी रूप से पहले से त्योहार की तिथि सम्भव नहीं हो सकती। ये अलग बात है आज भाग दौड़ की जिंदगी में हम तिथि, कैलेंडर से तय करने लगे हैं, प्रकृति या अनुषठानों के मार्फ़त नहीं। 

गौमारा : जब हम खेती बारी के ज़मीन में प्रवेश किए और सामाजिक तौर पर गाँव में रहने लगे तो इस त्योहार के दस्तूरों में कुछ परिवर्तन भी आया। चूँकि यह त्योहार साल भर जीवन जीने के क्रम में सहयोग करने वालों को धन्यवाद देने का समय है, तो गाँव का जीवन जीने के क्रम में अपने पालतु जानवरों की सेवा करने वाले गोप(गौ) को मान सम्मान हम इस दिन देते हैं। इस अनुषठान में (बुनुम) दीमक के मांद को सांकेतिक रूप से इस्तेमाल किया जाता है। जिस तरह दीमक की मांद में एक रानी होती है, जब दीमक आदि भटक जाते हैं तो रानी दीमक विशेष आवाज़ निकालती है, और भटके हुए दीमक वापस घर जाते हैं। यह प्रकृति में जीवों का व्यवहार है, वैसे ही गोप भी हमारे पालतु जानवरों गाय, बैल, बकरी, भेड़ आदि को एकजुट रखता है।उसकी एक आवाज़ में साथ जाने वाले जानवर वापस एक जगह जाते हैं, तो त्योहार का यह अनुषठान उनके लिए सम्पन्न होता है।

 

हे: सकम : त्योहार के दौरान खाने पीने, हंडिया पीने एवं अन्य दैनिक कार्यों के लिए हमारा उपयोगी चीज पत्ता ही आदिवासी समाज का रीढ़ होता है। इस दिन साधारणत: इसी पत्ते का इंतेजाम करने का दिन होता है। जंगल जाकर इसे हम संग्रह करते थे।

 

ओते इलि : इस दिन हम धरती को सम्मान देते हैं। इस दिन पूजा का प्रसाद हंडिया पीने के दौरान हम पत्ते के दोना में हंडिया ऐसे भरते हैं की ज़मीन पर भी गिरे। ज़मीन पर हँडिया बहने के दिशा के आधार पर मौसम आदि की जानकारी साझा किया जाता है। इलि अरवा चावल से बनने वाले सोमरस को कहते हैं। लेकिन हम आदिवासी वही अर्पण करते हैं, जो हम खुद खाते पीते हैं।तो गाँव में जीवन जीने के क्रम में हमने धरती को हंडिया अर्पण करना शुरू किया। और बहुत सारी मान्यताएँ इससे जुड़ी है, वह हमारे दस्तूर का पार्ट है। और यह दस्तूर व्यक्ति व्यक्ति और गाँव गाँव में भिन्न होगा।

 

गुरी लोयो: - यह दिन साफ सफ़ाई का दिन होता है। इस दिन पूरे घर और उसके परिवेश को गोबर से लिपाई पोताई का शुद्द किया जाता है। ज्ञात हो गोबर से 60 से ज़्यादा तरह के bacteria मर जाते हैं। और यह प्राकृतिक तरीक़े से काम करता है। गीला गोबर में bacteria या वाइरस चिपक जाते हैं और जब गोबर सूखता है तो ये मर जाते हैं। शुद्दीकरण का मकसद साफ सफाई के माहौल में अपने सगे सम्बन्धियों एवं मेहमानों को आवभगत करना होता है।

 

मरंग पोरोब : इस दिन हमलोग वास्तव में इस प्रकृति को धन्यवाद देते हैं। अपने साल भर के गतिविधियों में जैसे समय पर बारिश होने पर खेती की शुरुआत हम बाबा हेर मूट से करते हैं, फिर समय पर खर पतवार हटाते हैं, समय पर बारिश होने से कड़हन समय पर करते हैं और हेरो: पोरोब में प्रकृति को बलि देकर खुश करते हैं की यह बहुत मूलवान समय है और इसी तरह बारिश बनाए रखें।

सभी चीजें समय पर करने से जब फसल तैयार होता है तो जोमनमा में नई फसल का स्वागत करते हैं, और सम्मान देते हैं। फसल को खलिहान में लाते हैं और धान को घरों(बंदी ओआ) में लाते हैं। और हम आश्वस्त हो जाते हैं की इस फसल से साल भर हम जीवन गुजर-बसर कर लेंगे और अपने मेहमानों की भी सेवा सुशुरसा हो जाएगी। इन सारी प्रक्रियाओं में प्रकृति ने सिंहवोंगा, देशाउलि, पाऊँड़ी, जयरा, गोवाँ बोंगा, और गोरम ग़ैंसिरी के माध्यम से हमें साँप बिच्छू, बाघ भालू हाथी से सुरक्षा प्रदान किया, बीमारी के समय जड़ी बूटी जंगल से दिया, और जो भी हमें जरुरत पड़ी उसके लिए अपने आँचल को हमारे लिए हमेशा खुला रखा। इन सबके लिए हमलोग प्रकृति को अपने देशाउलि के मार्फ़त धन्यवाद देते हैं। यही दर्शन इस त्योहार का मूल है। दियुरी यानी गाँव के पुजारी इस दिन चींटी से लेकर बड़े जानवर गाय, बैल, भैंस, तथा गाँव के प्रत्येक व्यक्ति चाहे मालिक हो या काम में सहयोग करने वाले सभी के लिए मंगल की कामना करते है। गाँव के लोग भी अपनी उपस्थिति इसीलिए देते हैं की देशाउलि उन्हें भी पहचान लें ताकि प्राकृतिक शक्ति की कृपा बनी रहे। जो बात दियुरी अपने पूजा अनुषठान में नहीं बोल पाए, या भूल गए वह गाँव वाले उनके पीछे से बोलकर, या गाकर भी पूरा करते हैं।

महज इन्हीं ख़ुशियों एवं प्रकृति को धन्यवाद देने के लिए यह त्योहार जंगल में जीवन के समय से चला रहा है। लेकिन कालांतर में कुछ व्यक्तिगत और कुछ हंसी मज़ाक़ में हमारे त्योहार और दस्तूरों का स्वरूप बदल दिया। जैसे दियुरी अपनी रीति विधि से पूजा करते हैं लेकिन किसी काल-क्रम में किसी जगह पूजा के दौरान मुर्गा पूँजी(चावल) नहीं खा रहा था। दियुरियों के पीछे गाँव वाले खड़े रहते हैं, तो भीड़ में किसी का पैर किसी के पैर में या किसी को हिलने डुलने के दौरान काँटा में भी लग सकता है। उसी माहौल में किसी ने बेटेंग होते हुएहाउ रुजीकह कर चिल्ला सा दिया। इत्तफ़ाक़ से मुर्गा उसी समय पूँजी खाना शुरू कर दिया। गाँव वाले ऐसे चिल्लाया बोलकर हंस रहे थे, लेकिन जब मुर्गा पूँजी खाना शुरू किया तो लोग बोलने लगेआतेना नेन सिम दो मंगे एनंगे जोम केडा बस यहीं से इस त्योहार में मगे शब्द आया और त्योहार का नाम भी यहीं से धीरे धीरे प्रचलन में शुरू हुआ। लोग बोलने लगेमगे एनंग सिमो पूँजी ऊडाऔर कालांतर में लोग भद्दी भद्दी गाली का उच्चारण कर इस त्योहार की गरिमा को ही नष्ट करने में लगे हुए हैं। इस त्योहार के मूल को लोग बहुत पीछे छोड़ दिए और आज बाहरी संस्कृति के प्रभाव में कुछ व्यक्तिगत अध्यात्म के नख़रों से एवं कुछ दस्तूर के आगे पीछे गड़बड़ होने से यह त्योहार अपनी गरिमा एवं प्राकृतिक स्वरूप खोने की स्थिति में गया है। 

 

जतरा : कई गाँव में अखाड़ा का पूजा पाट होता है, तो ऐसे देवाँ इस दिन अपने देवता (बोंगा) को खुश करने के लिए पूजा पाट करते हैं, और कई गाँव वाले भी इसमें शिरकत करते हैं। दस्तूर में गाँव गाँव में भिन्नता नज़र आएगा, चूँकि प्रत्येक व्यक्ति का आचरण और व्यवहार अलग होता है।

 

हर मंगेया/बगिया : बगिया बोंगा वास्तव में जंगली जानवरों को हमारे लिए पालतु बनाने में सहयोग किए थे। गाय, बैल, भैंस, बकरी, मुर्गा, बत्तक सभी पहले जंगली थे, इनसे दोस्ती कर हमने उन्हें पालतु बनाया, और बगिया बोंगा इस कृत्य में हमारा साथ दिए। चूँकि अनादेर में इस त्योहार का दिन तय करने के दरम्यान हमने सभी शक्तियों का आह्वान किया था, सो ये भी त्योहार के दरम्यान हमारे साथ थे, लेकिन इनका निवास हमेशा से जंगल ही होता है। इसीलिए त्योहार के बाद हम सम्मान पूर्वक वापस गाँव के सिमाने तक छोड़ कर आते हैं, ताकि जंगल को चले जाएँ। कालांतर में इस दिन को भी हर बगिया से हर मंगेया हम करते हुए नज़र आते हैं।

 

प्रकृति को धन्यवाद देने का यह त्योहार मगे मगे करके मगे पर्व में convert सा हो गया। इसके दर्शन तक पहुँचने के लिए प्रकृति को समझना ही जरुरी था। प्रकृति से हमारा संबंध पाराभौतिक आध्यात्मिक क़िस्म का रहा है। लेकिन प्रकृति को आज भौतिक चीज़ के रूप में हम इस्तेमाल कर रहे हैं और समझ रहे हैं, इसीलिए पाराभौतिक आध्यात्मिक रिश्ते की समझ हमारे लिए एक कठिन प्रक्रिया सी हो गई है। प्रकृति से सम्बंधित दस्तूर भी आज व्यक्तिगत अध्यात्म के रास्ते अंतिम साँसे गिन रहा है। हमारे प्रत्येक त्योहार प्रकृति के इर्द गिर्द एवं उसके व्यवहार से ही निकले हैं। ना की व्यक्ति के हाव भाव या व्यक्ति के समय से। व्यक्तिगत आचरण से हम समय आगे पीछे कर सकते हैं, क्या खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए उसमें cap या सीमा लगा सकते हैं। लेकिन आदिवासी दर्शन को प्रकृति से दूर करने से आदिवासियों का दर्शन तो समाप्त होगा ही, प्रकृति भी लोगों के भौतिक समझ के आसरे समाप्ति के कगार पर पहुँच चुका है। प्राकृतिक समझ को स्थापित करना हमारे लिए एक चुनौती तो है लेकिन असम्भव भी नहीं है।

आइय हम सब मिल कर इस विरासत को सम्भालें। जोहार!

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